Saturday, 11 January 2014

चिन्तन की पूरी प्रक्रिया- आत्म संसोधन

ऐसा लगता है कि हमलोगों ने सदियों से आत्म संसोधन करना बंद कर दिया है। ह्म चिन्तन तो करते हैं पर टुकड़ों में। , समग्र चिंतन नहीं है। जो है उसे कड़ियों में पीरों कर  चिन्तन की पूरी प्रक्रिया को मूर्त नहीं कर पाते। यदि हम कभी जोड़ते भी हैं तो उसमे तारतम्य ,एकरूपता समरूपता नहीं ला पाते ।  चिन्तन का शोधन,समन्वय ,समायोजन,वर्गीकरण,स्टैंडर्ड्जेसन ( मानकीकरण ) तथा सहज उपलब्धता समज का दायित्व  है , हम अपने इस दायित्व के निर्वहन में पूर्णतः सफल नहीं रहे।

एक और बात महत्वपूर्ण है -हमारा चिंतन,हमारी चिन्तन-प्रक्रिया अधिकांश समय नितांत व्यक्तिगत-व्यक्तिपरक , वैयत्तिक रह जाती है-निकटस्थ रह जाती है ,दूरस्थ नहीं हो पाती।

 यह लगता है हमारे चिंतन की दशा तथा दिशा ही बदल दी गयी है। सामूहिक या सामाजिक सरोकारों को पूरी तरह से अपने में धारण नहीं कर पाती।  हम क्षुद्र प्रकृति के तात्कालिक चिंतन में लग गए हैं। हम अपने चिंतन की हर ईंट को अच्छी तरह से पहचान कर,पका कर संभल कर नहीं रख पाते। वे बहुधा भावनाओं के भाव में बह जाया करते है।

स्वतः स्फूर्त कविता ,शेर, शायरी ,स्त्री चित्रण ,नख सिख वर्णन  ज्ञान नहीं हो सकते।

 ऐसा चित्रण भाव ,भावना ,उत्साह ,अतिरेक हो सकता है,. सावधानी से  सुविचारित संसोधित ज्ञान  नहीं।








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