मै कलकत्ते में जन्मा था। वहाँ मिट्टी के दर्शन नही होते। सन १९६० के आसपास भी नहीं होते थे ,आज तो और नहीं होते। मिट्टी दुर्लभ होती जा रही हे। शहरों में ही नहीं ,हर कहीं। मिट्टी की कदर करने वाले भी कम हो गए।
कलकत्ते में हूगली नदी की मट्टी छोटी छोटी टोकरियों में १९६० के आस पास बिकते देखा करता था। अब तो वह भी कम हो गई। कलकत्ता पूरा का पूरा कंक्रीट का जंगल था।
पूरी कि पूरी पीढ़ी बिना प्रकृति के संपर्क में आये बीतती जा रही। शहर के बाहर का जीवन, खेत खलिहान ,पेड़ ,पौधे , बगीचा यहाँ तक की गाय,बैल ,बकरी ,आदि देखे बिना बचपन बीत जाता है।
पर हा,कलकत्ते में तब भी और आज भी एक चीज प्रचुरता से उपलब्ध हे-, और वह है कलकत्ते के बंगाली समाज कि परम्परावादी वेशभूषा,उनकी संगीत, कला तथा पूजो -ठाकुर ,जात्रा ,माछ आदि के प्रति निष्ठा।
सामानांतर मिल जायेगी कलकत्ता में राजस्थानी प्रवासी समाज की जीवंत परम्परा। इसी शहर के एक कोने में चीनी ओरिजिन के लोगों को अधिकार के साथ रहते अभी भी देखा जा सकता है।
दीनिक मजदूर वर्ग बिहार,या पूर्वी यूपी से आया हुआ अभी भी स्थायित्व तलाशता है। अब यह वर्ग छोटी छोटी चाय पान आदि कि दुकानों में संभल रहा है। फुटपाथ कि दुकानदारी में भी जम चूका है। दुकानों ,मकानों बिजली या इलेक्ट्रॉनिक्स समनोके मेंटेनेंस में भी अब इस वर्ग ने अपनी जगह बना ली है।
बंगाली समाज अभी भी परम्परावादी शालीन है ,चैतन्य है,कलात्मक है। बंगाल से बाहर गया श्रमिक वर्ग कलात्मक कामों में सारे भारत में धीरे धीरे फ़ैल रहा है
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