Sunday, 26 January 2014

क्या हम १८% के स्तर पर काम करने वाले समाज के अंग है?
क्या हमें ग्रेस मार्क से पास होने ,कर दिये जाने ,या पास कर देने आदि की स्थितियों से कोई बैचैनी  होती  है ?
हम किसी भी उपदेश या सजेसन को सहज शेयर करते हैं पर उस पर एक्ट अपॉन करने के प्रयास से भी असहज हो जाते हैं , क्यों ?
हम विदुर श्रेणी के योग्य लोगों को सलाहकार श्रेणी में ही रखने की मानसिकता में क्यों रहते हैं ,उन्हें निर्णय लेने ,कुछ करने का अधिकार देने को तैयार क्यों नहीं होते ?
हम धृतराष्ट्र ही क्यों राजा के रूप में कथा कहानी  के पात्र के रूप में खोज पते हैं।
बीरबल ,टोडरमल , विदुर  को हम केंद्र में क्यों नहीं रखते।
यथास्थितिवादी हैं क्या हम ?
वास्तविक परिवर्तन का आभास भी हमें  किसी अनजाने भय से ब्याकुल क्यों कर  देता है ?
थोड़ी भी अधिक क्षमता वाले व्यक्ति की हम पूजा क्यों करने लगते है ?
ऐसे लोगों को सामान्य समाज  में प्रतिष्ठा क्यों नहीं देते ? दे भी दें  तो उन्हें  व्यवस्था में केंद्रीय स्थान न दे    कर , परिधि में कहीं बैठने को विवश क्यों कर देते हैं। 

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