एक समय मेरे परिवार में पाँच सदस्य हुआ करते थे। मैं मेरे पिता अस्वस्थ। कालांतर में मेरी बहन भी अस्वस्थ हुई तथा अंततः १९८५ में चल बसी। बहन की बीमारी की कहानी फिर कभी !
पिताजी का मनोबल टूट चूका ,शायद निराश रहा करते थे। आर्थिक साधन भी टूट चुके थे।
खैर किसी प्रकार टूटते -घिसटते पीटते ,लड़ते ,लड़ाते हमलोगों का एडमिशन हुआ।
मुझे याद हे जब प्रो गुप्ता जी के निर्देश पर मैं कालेज में फार्म आदि भरने गया था तो मुझे देख कर ही कालेज के कर्मचारियों की अजीब सी प्रतिक्रिया हुई। एड्मिशन फार्म पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर किए तो सामने उपस्थित क्लर्क महोदय ने मुझसे पूछा क्या हिंदी नहीं जानते हो।
कालेज में कोई खास पढ़ने की चीज नहीं थी। शिक्षक,कर्मचारी ,विद्यार्थी सभी एक सीरे से खैनी अभयस्त थे। ऐसा लगता था कि खैनी खाना ,खिलाना वहाँ का प्रचलित व्यवहार था.कोई भी उसके बारे में सोचने तक के लिए तैयार नहीं थे। कभी-कभार मैं खैनी के लिए अपनी अरुचि को अपने मनोभावों से प्रकट कर देने पर मुझे सारे वातावरण से अलग खड़े पड़ता था। इसके लिए मुझे विवश किया था।
एक अजीब सी बात थी वहाँ ,कॉलेजके शिक्षकों की रूचि पढने में -पढ़ाने में कम जातीय गुटबाजी या राजनीति में अधिक थी। काले के अधिकांश शिक्षक विषय के गम्भीर जानकार नहीं थे। विषय का सतही ज्ञान रखते थे। कूछ एक शिक्षक विषय के अच्छे जानकार तो थे पर कालेज प्रशासन अथवा विद्यर्थियों द्वारा आवश्यक अथवा समुचित सहयोग नहीं मिलने के कारण क्लासों में भारी मन से आते थे।
विद्यार्थियों का स्वरुप क्या बताऊ ? अधिकांश विद्यार्थी गांव से आते थे। सीमान्त किसान के बेटे।।कुछ तो कृषि -मजदूर के बेटे।कुछ वस्तुतः दैनिक मजदूर। अनुसूचित जाति के मजदूर विद्यार्थी। सफाई वाला विद्यार्थी। सायकिल के पंक्चर बनाने वाला विद्यार्थी। समाज के निचे पायदान वाला विद्यार्थी। पर पढ़ाई का वातावरण नदारद।
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