Tuesday, 7 January 2014

निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों ही एक ही मार्ग के दो छोर है। इन्हें मैं अलग अलग नहीं जन प् रहा हुँ। एक की यात्रा स्वतः दूसरे तक की यात्रा है।
सन ७३ में किसी प्रकार अनेक विरोधों के बीच अत्यंत स्वल्प साधनों को येन केन प्रकारेण एकत्र कर  मेरा कालेज में दाखिला करवाया गया।
सच कहुँ  तो कालेज में पढ़ने लायक जैसा कुछ भी नहीं था। लगता है ,मेरे पास साधन,समय,शक्ति भी  नहीं थी। ननिहाली कपडे की दुकान में कपड़ा बेचा करता था। शेष बचे समय में क्षुद्र ट्यूशन टाइप की चीज करता था। कभी कभार इस सिलसिले में पटना आना जाना पड़ता था। कपडे की दुकान की खरीदारी के सिलसिले में। आने जाने के नाम पर गिनती के पैसे मिलते थे। कुछ नया युवा मन था। कभी कभार कुछ पत्रिकाएं खरीदने का मन होता था , साधन थे नहीं ,ऐसे में साढ़े तीन रुपयेसे कुछ अधिक में पचास अख़बार लेकर अँधेरा रहते अथवा पौ फटते तक बेच लेना एक स्वावलम्बी साधन प्रतीत होता था। यह काम मैंने दस पांच बार तो अवश्य किया होगा।
इस दौरान भयंकर संघर्ष थे। मेरे दादा कलकत्ता से ७३-७४ में विशाखापत्तनम चले गए थे। मेरे सबसे  छोटे
चाचा को लेकर।
दादाजी १९७६ के आसपास स्वर्गवासी हूए ,इसी वक्त मेने छुपते छुपाते कुछ किताबें खरीदी। पढ़ी  और इसी दौरान रांची विश्व् विद्यालय कि विभिन्न कालेजो में पढ़ रहे कुछ विद्यर्थियो से मित्रवत स्नेह पाया। इस दौरान अर्थशास्त्र  मेरा प्रिया विषय था।
जूनून की तरह उस बीस वर्ष की उम्र में मैं लगा रहता था। उसी क्रम में मैं कुछ इकोनोमिक्स के जानकारों के संपर्क में आया। उसी खोज के क्रम में रांची भी गया। शायद किसी दुकानदार का छोटा मोटा चिट्ठी -पत्री का कम या कोई सरकारी कागज पढ़ देने पर ,ययस्क जबाब लिख देने पर शायद कुछ पैसे मिल जयकरते थे।  घर के अपने साधन तो खाने तक के लिए पर्याप्त नहीं थे। पहनने के नाम पर रिश्तेदारों की उतरन। उसी खोज में छिपते छिपाते रांची, गया,दिल्ली , कलकत्ता,बनारस और इलाहबाद भी गया। स्टेट बैंक के कुछ कर्म चारी १९७४ से ही मेरे संपर्क में आ चुके थे। सम्भवतः उन्हें मेरे कामर्स के कलकतिया ज्ञान से आकर्षण था या उससे  मतलब सिद्ध होता होगा।

उनका मतलब

इसीबीच  

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