स्वयं को खोल डालना , सार्वजानिक कर डालना कोई सरल कम नहीं है। अमूमन व्यक्ति के पास सार्वजनिक करने लायक कुछ भी नहीं होता। व्यक्ति का जीवन कोई आर्ट गैलेरी तो है नहीं जिसे बड़ी तन्मयता से सोच समझ कर डिजाइन किया गया और फिर उसमें महँ कलाकारों की जीवन भर की साधना से उत्पन्न कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया हो।
मनुष्य कि यात्रा तोएक स्वतः स्फूर्त यात्रा है जिसमे छप्पन प्रकार के ब्यंजन भी हो सकते है और फाकाकशी भी। भयंकर ,वीभत्स रौद्र ,भयानक आदि रसों के चेपक हो सकते है या किवात्सल्य रस की पावन धारा ,श्रृंगार रस की उदात्त प्रस्तुति ,सम्पूर्ण शांत रस या शांतिदायक भक्तिरस - कुछ भी हो सकता है।
जीवन इसी अनिश्चिंता कि अनबूझ पहेली है,अनंत यात्रा है।
स्वयं को सार्वजानिक कर डालने के बाद उसे पूनः नहीं बनाया जा सकता है। जो जीवन एक बार सर्वजनिक हुआ , वह फिर सदैव सार्वजानिक ही रह जाता है।
पर दिक्कत तो यह है कि सार्वजनिक करने लायक कुछ रहता ही तो नहीं।
मेरी समझ में मनुष्य का जीवन संकीर्णताओं ,क्षुद्रताओं ,स्वार्थो ,आवेगो , सवेंगों ,भावनाओं के क्षणिक संघर्ष का अनंत क्रमबंधन है।
लगभग कुछ भी बताने या दिखाने लायक तो है ही नहीं।
ऐसी स्थिति में स्वयं कोसार्वजनिक करते समय एक दोष भाव आ रहा है। मैं उससे बच नहीं पा रहा हुँ।
केवल यही कहूंगा कि जितनी भी लघुता होगी वह सारी मुझमे भी होगी। यदि लघुता के विपरीत कुछ है तो वह आप सभी का दिया हुआ ही होगा।
हो सकता है पूर्वजों के संस्कार हो या कि उन संस्कारों की परावर्तित प्रतिछाया।
वैसे हजार बार यह मान लेने के बाद भी मै पाप पुंज हुँ ,मेरा ह्रदय यह मानने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा हुँ
कि मै उस परमसत्ता से पूर्णतः विमुख होउंगा। जब वृक्ष,मृग ,गिद्ध ,बानर विमुख नहीं हुए,तो मैं क्यों विमुख मानू।
इसी सम्बल के आधार पर मैं स्वयं को पूर्णतः सार्वजनिक करूँगा। शायद अपने पापो कि पोटली आप सभी के सामने खोलते खोलते उस प्रभु की कृपा का अंश मैं पुनः देख पाऊ। यदि नहीं देख पाऊ तो कम से कम समझ ही पाऊ और यदि मैं न देख पाऊ या न समझ पाऊ तो भी आप लोगों में से कोई तो उसे खोज ही लेंगे।
पर यह प्रयास ,मेरी यह यात्रा , मेरा है। इसका सारा फलाफल मेरा। मेरे अपराध मेरे ,अपराध बोध मेरा। आप में से कोई भी मेरे अपराध भाव को प्राप्त न करे।
आप सब उस अपराध के न तो कारण है. न फल।
इसी प्रकार मेरे पुण्य भी आप सब से पृथक है।
मनुष्य कि यात्रा तोएक स्वतः स्फूर्त यात्रा है जिसमे छप्पन प्रकार के ब्यंजन भी हो सकते है और फाकाकशी भी। भयंकर ,वीभत्स रौद्र ,भयानक आदि रसों के चेपक हो सकते है या किवात्सल्य रस की पावन धारा ,श्रृंगार रस की उदात्त प्रस्तुति ,सम्पूर्ण शांत रस या शांतिदायक भक्तिरस - कुछ भी हो सकता है।
जीवन इसी अनिश्चिंता कि अनबूझ पहेली है,अनंत यात्रा है।
स्वयं को सार्वजानिक कर डालने के बाद उसे पूनः नहीं बनाया जा सकता है। जो जीवन एक बार सर्वजनिक हुआ , वह फिर सदैव सार्वजानिक ही रह जाता है।
पर दिक्कत तो यह है कि सार्वजनिक करने लायक कुछ रहता ही तो नहीं।
मेरी समझ में मनुष्य का जीवन संकीर्णताओं ,क्षुद्रताओं ,स्वार्थो ,आवेगो , सवेंगों ,भावनाओं के क्षणिक संघर्ष का अनंत क्रमबंधन है।
लगभग कुछ भी बताने या दिखाने लायक तो है ही नहीं।
ऐसी स्थिति में स्वयं कोसार्वजनिक करते समय एक दोष भाव आ रहा है। मैं उससे बच नहीं पा रहा हुँ।
केवल यही कहूंगा कि जितनी भी लघुता होगी वह सारी मुझमे भी होगी। यदि लघुता के विपरीत कुछ है तो वह आप सभी का दिया हुआ ही होगा।
हो सकता है पूर्वजों के संस्कार हो या कि उन संस्कारों की परावर्तित प्रतिछाया।
वैसे हजार बार यह मान लेने के बाद भी मै पाप पुंज हुँ ,मेरा ह्रदय यह मानने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा हुँ
कि मै उस परमसत्ता से पूर्णतः विमुख होउंगा। जब वृक्ष,मृग ,गिद्ध ,बानर विमुख नहीं हुए,तो मैं क्यों विमुख मानू।
इसी सम्बल के आधार पर मैं स्वयं को पूर्णतः सार्वजनिक करूँगा। शायद अपने पापो कि पोटली आप सभी के सामने खोलते खोलते उस प्रभु की कृपा का अंश मैं पुनः देख पाऊ। यदि नहीं देख पाऊ तो कम से कम समझ ही पाऊ और यदि मैं न देख पाऊ या न समझ पाऊ तो भी आप लोगों में से कोई तो उसे खोज ही लेंगे।
पर यह प्रयास ,मेरी यह यात्रा , मेरा है। इसका सारा फलाफल मेरा। मेरे अपराध मेरे ,अपराध बोध मेरा। आप में से कोई भी मेरे अपराध भाव को प्राप्त न करे।
आप सब उस अपराध के न तो कारण है. न फल।
इसी प्रकार मेरे पुण्य भी आप सब से पृथक है।
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