न जाने किन चिंतकों ने हमारे ग्रामीण परिवेश से चिंतन को अलग करवा दिया ,केवल चिंता छोड़ दी। चिंतन को क्यों बंद ही करवा दिया। चिंतन के लिए दुर्गम जंगलों ,कंदराओं में ही जाना ही पड़ेगा, आखिर ऐसा क्यों। ऐसा निर्धारित कर ग्राहस्थ जीवन में चिंतन का निषेध ही कर दिया गया। पढ़ने पढ़ाने की जो व्यवस्था विकसित की गई उसके तर्क सामान्य समझ के परे हैं। सुनी हुई या यद् की हुई बाते ही पढ़ी -पढाई जा सकती थी ,ऐसा क्यों। नया सोचा ही नहीं जा सकता है , ऐसा क्यों। जो सुना या याद नही किया गया वह क्या है ही नहीं। और यदि वह नहीं ही है तो क्या नया कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता।
समझ में नहीं आता भारतीय ग्रामीण परिवेश के मूल में ऐसी त्रुटि कैसे हुई।
आज भी उपलब्ध प्रमाण यह दिखाते हैं कि हमारे ग्रामीण समाज में अभी भी ऐसा शोधित ज्ञान है जो इक्कीसवीं सदी के भूवैज्ञानिकों के ज्ञान से भी सूक्ष्म है। ऐसे प्रमाण है कि हजारो वर्ष पहले भी हमारे ग्रामीण ज्ञान में ऐसे जीवों कि स्पष्ट धरना थी जो आँखों से नहीं दीखते थे ,इन्द्रिय -गोचर जिव के अलावा भी अन्य जीव की प्रमाणिक उपस्थिति ग्रामीण चेतना में थी।
समझ में नहीं आता भारतीय ग्रामीण परिवेश के मूल में ऐसी त्रुटि कैसे हुई।
आज भी उपलब्ध प्रमाण यह दिखाते हैं कि हमारे ग्रामीण समाज में अभी भी ऐसा शोधित ज्ञान है जो इक्कीसवीं सदी के भूवैज्ञानिकों के ज्ञान से भी सूक्ष्म है। ऐसे प्रमाण है कि हजारो वर्ष पहले भी हमारे ग्रामीण ज्ञान में ऐसे जीवों कि स्पष्ट धरना थी जो आँखों से नहीं दीखते थे ,इन्द्रिय -गोचर जिव के अलावा भी अन्य जीव की प्रमाणिक उपस्थिति ग्रामीण चेतना में थी।
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