Saturday, 11 January 2014

हम अपने भूतकाल का वास्तविक ,सरल ,सहज  मूल्यांकन क्यों नहीं करते।
मुझे भूतकाल के महिमामंडन मे कोई रूचि नहीं। खामखा बीती बड़ी बडी बातों मॅ मेरी कोरी भावुकता में कोई डीएम नहीं दीखता। बिता  अभाव तो याद रहता है। कोरी भावुकता से काम नहीं चलता। क्यों आपके और हमारे चारों और भविष्य के लिए कोई स्थान नहीं। क्या हमारे पास दो ही रास्ते हें -या तो बापू की समाधि को तीर्थ बना दो या   बापू के या बुद्ध के या ईसा या रामकृष्ण के बुत बना कर उनकी पूजा करो  अथवा मार्क्स ,लेनिन , सद्दाम, या अफगानिस्तान के बामियान बुद्ध कि मूर्तियों को डायनामाइट से उड़ा देना,तोड़ कर  खंड खंड कर देना। क्या केवल दो ही रास्ते है। या तो गांधी को भगवान बना दो या उसे गोली मार दो।
पूजा करो या शिकार कर डालो ,बलि दे दो।  सद्दाम को या तो राष्ट्र नायक बना डालो ,इस्लाम का मसीहा  या फिर विश्व का खलनायक। क्यों हम दो अतिवादी विचारों के बीच पेंडुलम की तरह नाचते रहते हैं। क्या हम वास्तविक हो कर स्थिर नहीं रह सकते। क्या गांधी को मानव मानना इतना कठिन है कि आप उन्हें सब कुछ्मनस्ते है मानव नहीं।
क्या बुद्ध केवल सिद्धार्थ नहीं हो सकते।
 सारा का सारा घालमेल , विरोधाभास वतर्मान को भूत और भविष्य के अनावश्यक संघर्ष कारण झेलना पड़ता है।
जिस प्रकार वर्त्तमान भविष्य था और भूत होगा, उसी प्रकार ये शहर गांव ही तो थे। गांव पथ भ्रष्ट या पद भ्रष्ट हो कर शहर हो गए , गांवों के स्खलित होने से ही शहर बसे हैं। गावों को स्खलित होने दिया गया। गावों को  दिया गया है। गाओं टूटे नहीं ,तोड़े गए हैं। हम तोड़े फोड़े गए हैं ,टूटे फूटे नहीं हैं।
हमारे गावों को तोड़ने फोड़ने का सिलसिला  बहुत पुराना  है।





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