Sunday, 12 January 2014

भारतीय ग्रामीण जीवन में सरलता  है। पर वह अधिकाश जगह मूढ़ता की हद तक जाता दीखता है। स्वार्थ नहीं रखना अच्छी बात है ,पर अत्यल्प दृष्टि रखना कोई संतोष की बात कभी नहीं हो सकती। ग्रामीण परिवेश में सहजता है पर यह सहजता भंगुर प्रकृति की है। आधिक्य या अतिशयता,अतिरेक कभी भी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। इतनी सहजता और सरलता अभी भी विद्यमान है कि वह कुटिल लोगों के लिये एक चरागाह बन जाता है। कुटिल चित्त के लोग भोले भारतीय ग्रामीणों का अनायास अनुचित प्रयोग करते हैं। रेलवे के सामानों का वास्तविक चोरी करने वाला व्यक्ति ग्रामीण परिवेश से आता है किन्तु वास्तव में उसका कुटिल प्रयोग किया गया है। तमाम जोखिम भरे कम ग्रामीणों से ही करवा लिए जाते हैं। गगन चुम्बी इमारतों में बहरी दीवारों पर काम हो या पत्थर तोड़ने का,स्लेट बनाने का ,जहरीले केमिकल उद्योगों में , सभी जगह इन सरल ग्रामीणों का उपयोग होते रहता है ,ये ग्रामीण अपना  ही शोषण होते देखा करते हैं। ये इतने सरल होते हैं कि इन्हें अपने कामों का कारण या फलाफल का कोई गहन विचर नहीं होता। गाँव में दिन भर बच्चे इधर उधर घुमते रहते हैं ,इनकी खबर लेने वाला लगभग कोई नहीं होता। गांवो में बच्चों को अधिक स्वतंत्रता है पर जंगल की निर्बाध स्वन्त्रता का समज के संगठित विकसित स्वरुप से  कोई सामंजस्य हो ही नहीं सकता। पशुवत् सहज ,सरल या स्वतंत्र होना आज के विकसित समाज में कोई मूल्य नहीं रखता। भारतीय गांवों में आज भी कहीं कहीं आदि मानव के अनगढ़ मूल्य प्रचलित मिलते हैं। ऐसे मूल्य निरंतर बदल रहे समाज में अपना महत्व खो देते है।
परम स्वतंत्र न सर  पर कोउ ,ऐसा परिवेश व्यक्ति के सामाजिक चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता। सच तो यह है कि परम स्वंत्रता जैसी कोई चीज होती ही नहीं।


परम स्वंत्र न सर पर   

No comments:

Post a Comment