Tuesday, 25 November 2014

इस भुतल पर
कोइ शुभचिन्तक
मेरा अपना है।
बीते पल,ये दो पल, मेरे अपने
बाकी सब कुछ-
नीरागत सपना है।

जीर्ण - शीर्ण जब मैं हो गया होता हूँ,
युगों की कब्र मै दब गया होता हूँ-
तब
दीमक चाटी मेरी सत्ता को
धुमिल हो रही मेरी महत्ता को
एक यही है
जो आगे बढ़ कहता है
ऐ, दूर हटो तुम सब ,
यह तो मेरा अपना है
बीते दिनों का सपना
आज फिर मेरा अपना है

और तब

मुझे शोर-सराबे से दूर
मीठी चाँदनी के साये मे
मेरे उदास एकाकीपन को दूर कर
पर्त दर पर्त मेरे चारौं ओर
जमीं काई को
नये सपनौं की कूची से हौले हौले हटाते
मुझे खाये जा रही दीमक से लड़ते-झगड़ते
मुझमें नये रंग अपने संग देता
वह
कोइ शुभचिन्तक
मेरा अपना है।

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