Friday, 28 November 2014

मैनें आपसे चाँद या सूरज कब माँगा है -कब कहा की इस चाँद के, इस सूरज के टुकड़े कर दो।
बाँटने की बात कब कही।
  हाँ , इत्ती सी दरख्वाहस्त रही है कि आप मुट्ठी खोल दें -बंद चांदनी ,धूप को खुली हवा में सरकने दें , खुली हवा में सांस लेने दे ------बस यही विनती है। 

No comments:

Post a Comment