मेरे कालेज -संस्मरण -एक झलक -----
अंग्रेजी के एक शिक्षक हुआ करते थे .बंगाली थे .बिहार के सबडिविजन नुमा छोटे से कस्बे में थे - फिर भी मोटा मोटी विद्यार्थी स्तर की अंग्रेजी से काम चला लेते थे . वैसे उनके विद्यार्थी भी बहुत उत्साही नहीं हुआ करते थे . पर हाँ ,वे अपने स्तर से ,अपनी तरीके से ,अपनी हद तक अनुशासन प्रिय भी थे ,उत्साही भी थे .
पर कालेज के जातिवादी वातावरण में फिट नहीं बैठते थे .वैसे शिक्षक अच्छे ही थे.
एक अन्य शिक्षक थे जो शायद केवल पी एच डी अंग्रेजी की थीसिस लिखा और बेचा करते थे .शायद उनके पास ग्राहक इलाहबाद और बर्दवान तक से आ जाते थे .समर्थ नेटवर्क था .उस वक्त उचित टेलीफोन व्यवस्था तक नहीं थी तब भी उन्होंने यह काम किया . रेडीमेड थीसिस उनके पास लिखी रहती थी उनके शिष्य थिसिस्फ्ले लिख लिया करते थे - रजिस्ट्रेसन -एप्रूवल बाद में होता था ..अंग्रेजी साहित्य की समझ थी और अपने नालेज के व्यवसायिक उपयोग में वे उदार थे- केवल व्यसाय ही शायद उनका ध्येय था .
एक अन्य अंग्रेजी के शिक्षक थे . शायग गंगा पार के थे .प्रोफेसर अंग्रेजी के थे पर अंग्रेजी का भरपूर विरोध करते थे - शायद अंग्रेजी से राजनैतिक घृणा थी .समझ में नहीं आता वे अंग्रेजी कैसे पढ़ा पाते थे . वैसे यह बीमारी उस कालेज के अधिकांश प्राध्यापकों में मैंने पाई थी .उनके लिए उनका विषय उनके घर की रोटी सकने के चूल्हे से अधिक कुछ भी नहीं था .किसी को भी अपने विषय से शुद्ध प्रेम नहीं था .कोई भी अपने विद्यार्थी में अपने विषय के प्रति जिज्ञासा और रूचि पैदा करने में दिलचस्पी नहीं रखता था
बाद में पता चला कि इनमे कई उन विषयों के प्राध्यापक थे जिन विषयों में उनकी अपनी कोई विशेष पढाई -अध्धयन नहीं था .
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अंग्रेजी के एक शिक्षक हुआ करते थे .बंगाली थे .बिहार के सबडिविजन नुमा छोटे से कस्बे में थे - फिर भी मोटा मोटी विद्यार्थी स्तर की अंग्रेजी से काम चला लेते थे . वैसे उनके विद्यार्थी भी बहुत उत्साही नहीं हुआ करते थे . पर हाँ ,वे अपने स्तर से ,अपनी तरीके से ,अपनी हद तक अनुशासन प्रिय भी थे ,उत्साही भी थे .
पर कालेज के जातिवादी वातावरण में फिट नहीं बैठते थे .वैसे शिक्षक अच्छे ही थे.
एक अन्य शिक्षक थे जो शायद केवल पी एच डी अंग्रेजी की थीसिस लिखा और बेचा करते थे .शायद उनके पास ग्राहक इलाहबाद और बर्दवान तक से आ जाते थे .समर्थ नेटवर्क था .उस वक्त उचित टेलीफोन व्यवस्था तक नहीं थी तब भी उन्होंने यह काम किया . रेडीमेड थीसिस उनके पास लिखी रहती थी उनके शिष्य थिसिस्फ्ले लिख लिया करते थे - रजिस्ट्रेसन -एप्रूवल बाद में होता था ..अंग्रेजी साहित्य की समझ थी और अपने नालेज के व्यवसायिक उपयोग में वे उदार थे- केवल व्यसाय ही शायद उनका ध्येय था .
एक अन्य अंग्रेजी के शिक्षक थे . शायग गंगा पार के थे .प्रोफेसर अंग्रेजी के थे पर अंग्रेजी का भरपूर विरोध करते थे - शायद अंग्रेजी से राजनैतिक घृणा थी .समझ में नहीं आता वे अंग्रेजी कैसे पढ़ा पाते थे . वैसे यह बीमारी उस कालेज के अधिकांश प्राध्यापकों में मैंने पाई थी .उनके लिए उनका विषय उनके घर की रोटी सकने के चूल्हे से अधिक कुछ भी नहीं था .किसी को भी अपने विषय से शुद्ध प्रेम नहीं था .कोई भी अपने विद्यार्थी में अपने विषय के प्रति जिज्ञासा और रूचि पैदा करने में दिलचस्पी नहीं रखता था
बाद में पता चला कि इनमे कई उन विषयों के प्राध्यापक थे जिन विषयों में उनकी अपनी कोई विशेष पढाई -अध्धयन नहीं था .
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