Wednesday, 19 November 2014

सम्भवतः १९७२-७४ में प्रो डा (      ) उम्र ३०-३२ वर्ष रही होगी .वजन बमुश्किल लगभग ३० के जी होगा- शरीर की बनावट - केवल हड्डियों का ढांचा ,पुरे शरीर में मांस-पेशियाँ १०-२०% से अधिक नहीं .मस्तक छपता -अंडाकार ,बाल शरीर पर लगभग नहीं के बराबर ,आँखें चेहरे पर लगभग दो सेंटीमीटर धंसी हुई ,ना पतला सा तीखा लम्बा सा , ठुड्डी नहीं थी ,दाढ़ी-मूंछ लगभग नहीं , कान बहुत छोटे , हथेलियाँ लगभग पांच इंच की ,पूरा शरीर जब चाहिए खड़ा कर सारी हड्डियाँ गईं लीजिये .---परमात्मा का दिया यह शरीर .

पर पूरी तरह से चैतन्य और मेधावी .मैंने उन्हें एक सम्पूर्ण शिक्षक ,प्रशासक , और सक्षम वक्ता पाया .मानवीय गुणों से पूर्ण -संघर्ष शील . वे बड़े अच्छे आयोजक और संगठनकर्ता थे .
जहाँ वे थे वहाँ के जातिवादी राजनैतिक समीकरण में वे फिट नहीं बैठते थे .विद्यार्थी वही शरीर या बनावट बहुत महत्व नहीं रखता.भी जातीय गुटों में बंटे होते थे . पर - आश्चर्य था -उनकी कक्षाओं में विद्यार्थी सबसे अधिक पहुंचा करते थे .उत्तेजी विद्यार्थी तो उनकी उपस्थिति मात्र से अनुशासित , नियंत्रित हो जाते थे .
यूँ तो वे विज्ञानं संकाय के प्राध्यपक थे-डाक्टरेट ,पर महाविद्यालय के हर प्राध्यापक और कर्मचारी से उनके सम्बन्ध थे .कालेज  के सभी वर्ग के कर्मचरियों के परिवार तक को वे पहचानते थे .हर वर्ष नये एडमिशन लेने वाले विद्यार्थियों को वे चार छ महीने में ही अपने कालेज  के अंग के रूप में पहचानने लगते थे.
उनको प्रत्यक्ष देख समझ कर ही यह जाना जा सकता था कि व्यक्ति वस्तुतः अपनी आंतरिक क्षमता -आंतरिक कर्तृत्व ,आंतरिक व्यक्तित्व से ही यश पाता है ,जाना पहचाना जाता है और मनुष्य का   वाह्य शरीर -बनावट बहुत महत्व नहीं रखता .
सम्भवत प्रोफेसर साहब २००२ के आसपास रिटायर कर गये हों . अब शायद उनका शरीर भी नहीं रहा है
पर वे मेरी स्मृतियों में हैं

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