Friday, 21 November 2014

न्यायाधीश बनना और बनाना एक कला है , एक विद्या है , साधना है। हमारे यहाँ न्यायाधीश तो हैं पर वे बनाये ,गढ़े नहीं गये। न्यायाधीश नियुक्त तो कर दिये जाते हैं , पर न्यायाधीशों  के बनाने की कोई परम्परा नहीं है।
एक बात बता दूँ - नेताओं की तरह न्यायाधीश जन्मजात या आकस्मिक या पराक्रम से या राजनीति से नहीं आते।
जन्मजात न्यायाधीश की अवधारणा ही अधिनायकतंत्र को आगे बढाती है , संरक्षण देती है. प्रशिक्षित पारदर्शी -एकरूप न्याधीश के लिये समाज को तैयार होना ही पड़ेगा। न्यायाधीश को प्रशिक्षण देने वाले प्रशिक्षक भी तैयार करने पड़ेंगे। एक न्यायाधीश समाज-शिक्षक होता है। उसे एक सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक होना होता है , भविष्य-दृष्टा होना होता है। उसका सम्बन्ध एक मुकदमे के तात्कालिक निर्णय से ही  नहीं होता वरन उस मुकदमे के सम्पूर्ण प्रभाव तथा निर्णय के सारे फलाफल से भी न्यायाधीश को परिचित होना होता है।
न्यायाधीश चाहे स्थानीय  तौर पर न्याय व्यवस्था से जुड़ा हो अथवा राष्ट्रिय राष्ट्रिय स्तर पर , उसके अधिकारों का प्रभाव बड़ा ब्यापक होता है। स्थानीय स्तर के न्यायाधीश भी अंतरराष्ट्रीय प्रभाव डालते हैं।
अप्रशिक्षित न्यायाधीश स्वेच्छाचारी होता है ,  सदैव हो या नहीं - अप्रशिक्षित न्यायाधीश अकुशल तो होगा ही। प्रशिक्षण न्यायाधीश के विधि-ज्ञान में वृद्धि होती है। 

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