Saturday, 15 November 2014

थोड़ा और भर लूँ , तब बरसूँगा। यह भी प्रचलित है। अनंत काल से ऐसों की संख्या बरसने वालों से बहुत अधिक रही है। ऐसे न तो बरसते हैं , न बरस सकते हैं। ऐसों को आर्द्रता प्राप्त होने के बाद भी आर्द्रता का आनंद नहीं मिलता। वे तो थोड़ा और भर लूँ , थोड़ा और भर लूँ - करते रह जाते हैं। समय समय पर ऐसों की आर्द्रता सूर्य ताप स्वयं हरण हैं। ऐसों को हवा का झोंका भर भी टुकड़े टुकड़े कर दिया करता है।
विलाप करते रह जाते हैं कि मैंने बरसने में देरी कर कर दी।

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