Tuesday, 25 November 2014

उदास होकर दीवार के साथ ढुलककर सारी रात मैं बैठा रहा। मुझे बस और कोई चीज़ चाहिए ही नहीं, वही चाहिए। और कोई चीज़ उसके बदले में नहीं चाहिए थी। 

फिर कुछ दिनों तक पता ही नहीं चला। पता नहीं, शायद मैं अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द किए पड़ा रहा ।

यह किशोरावस्था में पता नहीं जीवन में कहाँ से, कौन-से किटाणु रेंगकर प्रवेश कर गए थे कि मेरे सहज चलते जीवन में अजीब से झटके लगने लगे, बुरी तरह से मुझे नचा जा रहे थे। मुझे लोगों से घबराहट होने लगी थी, डर लगता था। बस कहीं किसी एक कोने में ही दुबककर बैठे रहना चाहता।

आँखें बन्द करता तो लगता जैसे कोई पीछा कर रहा है, और दौड़कर अपने घर के अन्दर घुस जाता है। कोई वहाँ नहीं सारा सामान ग़ायब - पलंग, ज़मीन का ग़लीचा और दीवारों पर लगी तस्वीरें तक। पास पहुँचने पर देखा कि सिर्फ़ किताब ही पड़ी थी। चारों तरफ़ ख़ाली, बिल्कुल निहंग दीवारें।

बीच खड़ा में था।

अकेलापन, घबराहट और सदमे की वजह से पसीने से तरबतर था।

वहीं बैठा फटी- फटी आँखों से आने वाले दिनों को ही घूरता रहा।

मैं।

आज बहुत कुछ समझ में आ चला।

काश उस वक्त कोई मिल गया होता।

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