Saturday, 4 April 2015

भाव सम्पत्ति का धारक केवल अपने  विवेक और इच्छा शक्ति का समुचित प्रयोग  कर अपनी भाव सम्पत्ति सत्पात्र को दे सकता है, भाव सम्पत्ति अर्जित भी अपने भावार्थ की तीब्रतम इच्छाशक्ति से ही  की जाती  रही है  - भाव सम्पत्ति का  धारक अपनी भाव सम्पदा का परम-स्वतन्त्र स्वामी ,उपभोक्ता,नियंता ,प्रयोक्ता तथा निष्पादक होता है .
भाव सम्पत्ति अपात्र को  हस्तान्तरित  हो ही नहीं सकती .इस हस्तांतरण के लिये केवल भाव योग्यता- भाव पात्रता की ही आवश्यकता है ,न स्थूल पात्रता देखी जाती है ,न रक्त पात्रता .यह सब परम स्वैच्छिक  हैं .देना और लेना दोनों ही अनन्तिम रूप  से किसी विधि विधान से नहीं बंधे हुए हैं .इनका उद्गम अथवा निष्पादन परम स्वतत्र रूप से होता है .
जिसने इन्हें धारण किया उन्होंने भी अपनी पात्रता स्वयं बनाई .वे इसका त्याग भी स्वयं स्वेच्छा से  ही करेंगे .   जिसके प्रति करेंगे , या किसके प्रति कब करेंगे ,कैसे करेंगे , क्यों करेंगें -यह सब वे ही जानते हैं -निर्धारण करते हैं .हाँ लेनेवाला कई बार संकोच में पड़ जाता है.लूँ यां न लूँ . मैं इसका पात्र भी हूँ या नहीं .मुझसे सम्भलेगा या नहीं . यह उचित होगा या नहीं . यह नैतिक होगा या नहीं . यह भ्रम बना  रहता है ,
सम्भवतः यह भ्रम दोनों और ही रहता है .पर एक बार हस्तांतरण का भाव परस्पर स्विकृत हुआ नहीं  की सारा संशय कहीं भी नहीं रह जाता .
वैसे देने वाले को बड़े  प्रश्नों का सामना करना पड़ता है .उसकी चिन्ता भी बड़ी रहती है .इतने बड़े भाव पुरुषार्थ से स्व-अर्जित भाव सम्पदा एवं पूर्व से प्राप्त भाव सम्पदा का त्याग किसी के पक्ष में कितना उचित ,नैतिक, सुरक्षित है .
पर भाव पुरुषार्थी अपने भाव पुरुषार्थ को ही प्रमाण मानता और भाव्  मार्ग  पर चला चलता है . 

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