तुम बर्दाश्त करना भी क्यों नहीं सीख सकते
तलवारों को घर भेज कर क्यों नहीं जी सकते।
संगमरमरी मकबरों, रौबदार शहर मत बनाओ
नन्हीं हँसियों को दरख्तों पे घोसलें बनाने तो दो।
सितम के इन दीयों के भरोसे नहीं कटेगी ये रात
उम्मीद की शबनमी भोर हुई , इन्हे रुखसत करो।
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