Saturday, 27 September 2014

पर अंत में अच्छा लगता है , अपनी शर्तों पर चला , मन से चला ,बेदाग चला ,गले में बिना किसी चेन के चला , किसी भी डमरू पर नाचे बिना चला -----
--- यही न मदारी की दी हुई दो चार फ्राक नहीं मिली , नहीं पहनी ,मदारी ने रस्ते की धुल चुटकी में उठा मेरे माथे पर टेलकम पाउडर बता, नहीं लगाया ,दो घुंघुरू मेरे गले में नहीं बांधें -
--- मदारी के लिए मैंने किसी के सामने हाथ तो नहीं पसारे ----.
मैं गले में बेल्ट लगा स्वामिभक्त नहीं हुआ -इशारों पर नाचना . चाटना , इशारा मिलते ही बिना सोचे समझे किसी पर झपट पड़ना , किसी को काट खाना, किसी का बुरा भला कर स्वामिभक्ति प्रमाणित करते रहना . इतना तो नहीं किया - नहीं किया तो नहीं ही किया
जीवन यात्रा के अंत में संतोष तो देता ही है .
यात्रा तो उन स्वमिभाक्तों की भी खत्म तो होती ही न है -
तब वे सोचते होंगें -- इतना कुछ किया किसके लिए !
----क्या इसी के लिए अब तक मर कर भी जी रहा था !

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