Tuesday, 30 September 2014

स्वप्न नहीं होते तो अच्छा
होते तो होते -
कमसे कम आते तो नहीं
बिना बुलाये
दिन-रात कभी भी चले आते हैं
आते तो आते
जाते क्यों नहीं
ठहर ही क्यों जाते हैं
ठहरे तो ठहरे
सुस्ताते क्यों नहीं
दिन रात बस ठकठकाते क्यूँ रहते हैं
ये ठकठकाते स्वप्न भी क्या
कोई पता  ही नहीं बताते
कहाँ से आये ?
किसके है ?
कौन लाया ?
क्यों आये हैं ?
अब आ ही गये हैं तो
चुपचाप पड़े क्यों नहीं रहते
नींद के पीछे पड़े है
चैन चुरा ले जा रहे
और मैं - बेबस टुकुर टुकुर
इन्हें साकार करने को विवश हूँ
आप में से कोई तो होगा
इन सपनों को वापस बुलवा सके
पर सावधान
एक भी सपने को कहीं  ठेस भी पहुंची तो !
ये मेरे हो चुके हैं
अब मेरे है
ये और मैं
साथ साथ जियेंगें
साथ साथ मरेंगें 

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