हमारे माता -पिता के संस्कार अच्छे ही हो -जरूरी तो नहीं .
यदि माता पिता के अनुचित सामाजिक या वैचारिक या शारीरिक या व्यवहारिक या नैतिक संस्कार बच्चों तक पहुँच जाये तो बच्चों को माता-पिता के किये को ,
उनके अपयश को भोगना पड़ता है.
अपने ही परिवार के जन्म से प्राप्त अनैतिक संस्कारों को रोकने की कोइ प्रणाली कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आ रही .
हम जन्मजात संस्कारों से जो जड़ता प्राप्त करते है ,वे हमे मानसिक,शारीरिक , बौद्धिक ,नैतिक ,सामाजिक अवरोध के सिवा कुछ नहीं देते .हम वही सोचते , करते ,देखते हैं जिसकी छाप हम पर जन्म के साथ ही पड़ गई .
जन्मजात संस्कारों को छोड़ कर आगे स्वतन्त्र रास्ते पर चलना अत्यंत कठिन है , दारुण यंत्रणादायक है , लगभग असंभव सा है . पहले इस दस्ता को महसूस करना ही मुश्किल है . इसके दुष्परिणाम को जाना ,समझना ही असंभव. फिर कृतघ्न होने , माता-पिता के प्रति विद्रोही होने की सामाजिक निंदा अलग .माँ शब्द के साथ ही जन्मजात आदर्श और एहसान चिपका है .उससे कोई कैसे लड़ेगा .पिता शब्द के साथ ही विरत ब्यक्तित्व समझा दिया गया है ,अपने माता पिता, पूर्वजों का ऋणात्मक मुल्यांकन करना , वास्तविक मुल्यांकन करना , सामाजिक मुल्यांकन करना करवाना , अपने पूर्वजों के किये की आलोचना करना आपने , हमने सभी ने बंद ही करवा रखा है .
ऐसे में हम आप सभी अपने नहीं अपने पूर्वजों के पापों के कारण अपमान ,अज्ञान , कष्ट झेलते रहते हैं.
वैसे यह भी सही है की हमारी उन्नति, हमारे नैतिक बल ,शारीरिक बल ,बौद्धिक उदारता एवं समझ में हमारे पूर्वजों के संस्कार का योगदान है .
पर सम्भावना दोनों और होती है .
हमे उचित मुल्यांकन की स्वतंत्रता मिलनी चाहिये . हमे अपने इतिहास का , उत्तराधिकार का अन्वेषण स्वतंत्र रूप से करना ही चाहिए - चाहे यह किसी के लिए लितना भी पीड़ादायक क्यों न हो .
इतिहास की दस्ता से मुक्ति ही हमारा ध्येय और लक्ष्य होना चाहिये .
यदि माता पिता के अनुचित सामाजिक या वैचारिक या शारीरिक या व्यवहारिक या नैतिक संस्कार बच्चों तक पहुँच जाये तो बच्चों को माता-पिता के किये को ,
उनके अपयश को भोगना पड़ता है.
अपने ही परिवार के जन्म से प्राप्त अनैतिक संस्कारों को रोकने की कोइ प्रणाली कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आ रही .
हम जन्मजात संस्कारों से जो जड़ता प्राप्त करते है ,वे हमे मानसिक,शारीरिक , बौद्धिक ,नैतिक ,सामाजिक अवरोध के सिवा कुछ नहीं देते .हम वही सोचते , करते ,देखते हैं जिसकी छाप हम पर जन्म के साथ ही पड़ गई .
जन्मजात संस्कारों को छोड़ कर आगे स्वतन्त्र रास्ते पर चलना अत्यंत कठिन है , दारुण यंत्रणादायक है , लगभग असंभव सा है . पहले इस दस्ता को महसूस करना ही मुश्किल है . इसके दुष्परिणाम को जाना ,समझना ही असंभव. फिर कृतघ्न होने , माता-पिता के प्रति विद्रोही होने की सामाजिक निंदा अलग .माँ शब्द के साथ ही जन्मजात आदर्श और एहसान चिपका है .उससे कोई कैसे लड़ेगा .पिता शब्द के साथ ही विरत ब्यक्तित्व समझा दिया गया है ,अपने माता पिता, पूर्वजों का ऋणात्मक मुल्यांकन करना , वास्तविक मुल्यांकन करना , सामाजिक मुल्यांकन करना करवाना , अपने पूर्वजों के किये की आलोचना करना आपने , हमने सभी ने बंद ही करवा रखा है .
ऐसे में हम आप सभी अपने नहीं अपने पूर्वजों के पापों के कारण अपमान ,अज्ञान , कष्ट झेलते रहते हैं.
वैसे यह भी सही है की हमारी उन्नति, हमारे नैतिक बल ,शारीरिक बल ,बौद्धिक उदारता एवं समझ में हमारे पूर्वजों के संस्कार का योगदान है .
पर सम्भावना दोनों और होती है .
हमे उचित मुल्यांकन की स्वतंत्रता मिलनी चाहिये . हमे अपने इतिहास का , उत्तराधिकार का अन्वेषण स्वतंत्र रूप से करना ही चाहिए - चाहे यह किसी के लिए लितना भी पीड़ादायक क्यों न हो .
इतिहास की दस्ता से मुक्ति ही हमारा ध्येय और लक्ष्य होना चाहिये .
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