पत्थर हो चली है हवा,
आग में भुन चुका है समंदर।
पत्थर हो गई इस हवा का
मैं क्या करूँगा, !
मेरे बच्चे, ये पेड़, ये पौधे,
मूक-वधिर से ये मृगछौने
अब उनकी साँस की आस भी नहीं
यह पत्थर हो चली हवा !
तिजोरियों में बंद कर रखो इसे,
तुम्हारे काम आयेगी !!
जब मुर्दों के बाजार में
दुकान तुम लगाओगे !!!
जला ही डाला इस सारे समंदर को।
भुन चके इस सम़ंदर का, मैं क्या करूँगा ?
सहन कैसे करूँ मेरी प्यास को,
क्या जबाब दूँगा मीन की आश को !!
कैसे देखूँगा घोंघे निराश को ?
कागज की ये नाव कब से खड़ी है,
पानी की बाट जोहती अड़ी है !!
भुन चुके ,जल चुके इस समंदर को
तिजोरियों में बंद कर रखो इसे,
तुम्हारे काम आयेगा
जब मुर्दों के बाजार में
दुकान तुम लगाओगे।।।
चुल्लु भर पानी भी नहीं
डूब कर मरुँ भी तो कहाँ।
मेरी बेबसी
तुम्हारी खुदगर्जी
मेरी फाँकाकशी
तुम्हारी ऐयाशी
फोटो बना लो, गीत भी अच्छे बनेंगें
तिजोरियों में बंद कर रखो इसे,
तुम्हारे काम आयेगी,
जब मुर्दों के बाजार में
दुकान तुम लगाओगे।।।
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