नेहरू की मृत्यु के इक्यावन साल पूरे हो गए। लेकिन इस साल सत्ताईस मई यों ही निकल गई। गांधी की जगह नेहरू को गोली मारी जानी चाहिए थी, ऐसा सोचने वाले जब सरकार में हों तो उनसे नेहरू की मौत की, जो उनके हाथों न हो सकी, याद करने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। लेकिन कांग्रेस पार्टी को किसने रोका था? क्यों वह नेहरू को याद न कर पाई? क्या इसलिए कि खुद कांग्रेस के लिए नेहरू एक असुविधा थे?
नेहरू की मृत्यु नाटकीय नहीं थी। वे साधारण व्यक्ति की तरह ही वार्धक्य से जर्जर होकर मरे। कहा जा सकता है कि यह एक कर्मश्लथ व्यक्ति की मौत थी। मृत्यु के पहले उनको लकवे का झटका भी लगा। उनके सचिवगण बताते हैं कि उस बीमारी और अशक्तता की अवस्था में भी वे फाइलें खुद देखने और उन पर अपनी नोटिंग देने की जिद करते थे। निजी हों या दफ्तरी, सारे पत्र नेहरू खुद लिखते थे। शायद ही उन्होंने किसी और की भाषा में बनाए दफ्तरी या कामकाजी मजमून पर भी दस्तखत किए हों। आखिर वे लेखक थे और उन्हें अपनी शैली और अंदाज की फिक्र उतनी ही थी, जितनी उसकी कि क्या लिखा या कहा जा रहा है। लेकिन यह तो उस दौर के प्राय: सभी नेताओं की खासियत थी।
गांधी की हस्तलिपि कई जगह नहीं मिलेगी, लेकिन भाषा तो उन्हीं की होती थी। राजगोपालाचारी हों या सरोजिनी नायडू या मौलाना आजाद या राजेंद्र प्रसाद या नरेंद्र देव, सब कलम के धनी थे और राजनीतिक व्यस्तता की आड़ में लिखने से दिल न चुराते थे। लेखक की महानता की एक पहचान यह है कि उसने प्रभूत लिखा हो। सिर्फ श्रेष्ठ लिखने के चक्कर में अगर वह कम लिखता है तो उसके बड़े होने में शक है।
भाषा को लेकर नेहरू अतिरिक्त रूप से सावधान थे और भाषिक प्रयोग में सटीकता की कमी उन्हें उद्विग्न करती थी। गांधी को एक खत में कांग्रेस पार्टी में समाजवाद शब्द के मनमाने इस्तेमाल पर नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने लिखा, ‘विचारों के क्षेत्र में लोगों द्वारा शब्दों का स्वेच्छाचारी इस्तेमाल लाभकारी नहीं है। एक व्यक्ति जो खुद को इंजन-ड्राइवर कहता है और फिर यह बताता है कि उसका इंजन लकड़ी का है और बैलों से खींचा जाता है, इंजन-ड्राइवर शब्द का दुरुपयोग कर रहा है।’
नेहरू की मृत्यु उन्हीं के हिसाब से खासी गद्यात्मक थी, औपन्यासिक भी नहीं। अपने प्रिय शिक्षक और नेता गांधी की मौत को उन्होंने महाकाव्यात्मक बताया था, जैसा स्वयं उनका जीवन था। नेहरू के जीवन का उत्तर-भाग, जो उनके प्रधानमंत्रित्व का था, काव्यात्मक न रह गया था। क्या इसलिए कि इस दौर में वे सत्ता से संघर्ष नहीं कर रहे थे, बल्कि खुद सत्ता उन्हीं में निवास करने लगी थी? लेकिन गौर से देखें तो नेहरू का संघर्ष अनेक प्रकार की सत्ताओं से बना रहा था। आंबेडकर ने संविधान बनने और स्वीकार किए जाने के समय सावधान किया था कि भारत में जनतंत्र का बिरवा ऐसी जमीन पर रोपा जा रहा है, जो अभी ठीक से उसके लिए तोड़ी नहीं गई है। चुनौती जनतंत्र के माफिक जमीन तैयार करने की थी।
उससे भी बड़ी चुनौती लेकिन समाज में बुनियादी इंसानियत को बहाल करने की थी। हिंदुस्तान की आजादी नफरत के खून में डूबी हुई थी और यह सबसे बड़ा विरोधाभास था जिसका सामना गांधी और उनके शिष्यों को करना था। अहिंसा के रास्ते स्वतंत्रता हासिल करने के बाद आपसी समाजी रिश्तों में उस सिद्धांत की विफलता ने गांधी को यह कहने को बाध्य किया था कि उनका सिद्धांत विफल रहा है और अब तक जिस अहिंसा का पालन होता दिखाई दिया वह मजबूर भारतीयों की, जिनके पास ताकत न थी, निष्क्रिय अहिंसा थी। जब वे खुदमुख्तार हुए तो अहिंसा को धता बता दी।
नेहरू का एक संघर्ष सत्ता में अहिंसा के इस सिद्धांत के प्रयोग का था। यह दिलचस्प है कि खुद नेताओं को, जिन्हें नेहरू से बड़ा गांधीवादी माना जाता है, अहिंसा सत्ता के लिए असंगत मालूम पड़ने लगी थी।
बावजूद अनेक मसलों पर गांधी से उनके मतभेद के, वे संभवत: कांग्रेस में भी आखिरी गांधीवादी थे। गांधी-सिद्धांत की बुनियाद क्या है? यह कि एक व्यक्ति एक नहीं है और उसमें अपनी सीमा का अतिक्रमण करने की क्षमता है। प्रश्न किसी को अपनी शक्ल में ढालने का नहीं, उसे खुद का आईना बनाने का है। इस प्रक्रिया में अपनी सत्ता छोड़नी पड़ती है और निष्कवच होना होता है। गांधी जब सवर्णों को पाखाना साफ करने को कहते थे तो यह उन्हें उनकी सवर्णता की मानवीय और ऐतिहासिक कीमत का अहसास कराने का एक तरीका था। प्रश्न ‘डिक्लास’ होने के साथ-साथ ‘डिकास्ट’ होने का भी था।
एक में अनेक की संभावना, बुनियादी इंसानियत की अवधारणा में यकीन जो वर्गों और जातियों और अन्य बंधनों को तोड़ती हुई उठ सकती है और अपने आप में शक, इसलिए निरंतर आत्म-समीक्षा का अभ्यास, यह नेहरू ने गांधी से सीखा था।
आश्चर्य नहीं कि अपने समस्त सहयोगियों और अनुयायियों में अकेले नेहरू ही ऐसे थे जिनके बारे में गांधी को यकीन था कि वे उनके न रहने पर उनकी भाषा बोलेंगे। वे शायद समझ पाए थे कि नेहरू ने उनकी चिंतन-पद्धति को हृदयंगम कर लिया है और ब्योरों में मतभेद के बावजूद यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी।
आश्चर्य नहीं कि अपने समस्त सहयोगियों और अनुयायियों में अकेले नेहरू ही ऐसे थे जिनके बारे में गांधी को यकीन था कि वे उनके न रहने पर उनकी भाषा बोलेंगे। वे शायद समझ पाए थे कि नेहरू ने उनकी चिंतन-पद्धति को हृदयंगम कर लिया है और ब्योरों में मतभेद के बावजूद यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी।
नेहरू की प्रशंसा और उनकी आलोचना में भी कहा जाता रहा है कि उन्होंने वैज्ञानिक संवेदना पर जोर दिया। विज्ञान नेहरू को अपनी पद्धति के कारण आकर्षित करता था, ‘जीवन की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक नजरिया क्या होगा- हरेक चीज की परीक्षा करना, प्रयोग और गलतियों के सहारे सत्य की खोज करना,…कभी यह न कहना कि यह ऐसा ही होगा, बल्कि समझने का प्रयास करना कि ऐसा क्यों है और अगर उससे सहमत हों तो उसे स्वीकार करना और ज्यों ही नया प्रमाण सामने आ जाए, अपने विचारों को बदलने को प्रस्तुत रहना, एक खुला दिमाग रखना, ऐसा दिमाग नहीं जो हवा के हर झोंके में हिल जाए, और फिर भी ऐसा दिमाग जो सत्य को अंगीकार करने को तैयार रहे वह जहां भी दिखाई पड़े।’ वे विज्ञान को पूजा की वस्तु बनाने को राजी न थे और उन्होंने अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस के एक अधिवेशन में विज्ञानवाद के खतरे की तरफ इशारा किया था।
आशिष नंदी और टीएन मदान जैसे नेहरू-आलोचकों ने उनकी भर्त्सना यह कह कर की है कि गांधी के विपरीत उन्होंने भारतीय समाज की पारंपरिकता के स्वभाव को न पहचाना और यूरोपीय आधुनिकता को उस पर आरोपित कर उसकी चेतना को खंडित कर डाला। कहा जाता है विज्ञान की तरह ही नेहरू को इतिहास पर विश्वास था और वे इतिहासवादी थे।
नेहरू खुद इसके बारे में क्या सोचते थे? उन्नीस सौ इकसठ को एशियन हिस्ट्री कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा, ‘यूरोप और अमेरिका में निर्मित वैज्ञानिक और तकनीकी सभ्यता से प्रभावित होने के बाद अब मैं क्रमश: उस जगह आ पहुंचा हूं जहां मुझे यह रुक गई लगती है। मैं सभ्यता के भौतिक पक्ष मात्र से कहीं अधिक गहरी किसी वस्तु की खोज में हूं। मैं पाता हूं कि मेरी रुचि अब उसमें अधिक है, जो प्लेटो या बुद्ध ने कहा है, जिसमें एक प्रकार की कालातीतता है। इसलिए मैं सोचता हूं कि क्या हमारा आज का इतिहास, विज्ञान और टेक्नोलॉजी में अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद मानवीय अस्तित्व के उच्चतर धरातल की ओर बढ़ भी पा रहा है या नहीं।’
मानवीय अस्तित्व के इस उच्च धरातल की खोज का आध्यात्मिक आशय तो है, पर वह धर्मों के संगठित स्वरूप में उन्हें नहीं मिल रही थी। धर्मों से उनकी विरक्ति इस कारण थी कि वे अत्यधिक सांसारिक हो गए थे और उनके देवता उनसे कूच कर गए थे। लेकिन मार्क्स की तरह ही उन्हें इसे लेकर दुविधा नहीं थी कि उनका लक्ष्य नास्तिकता का प्रचार नहीं। धर्म को लेकर वे बहुत निश्चित नहीं थे।
उसका बाह्य रूप उन्हें आतंकित करता था, फिर भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि ‘इसमें कुछ और चीज थी, कुछ ऐसी चीज जो मनुष्यों की किसी गहरी आंतरिक आकांक्षा की पूर्ति करती थी। इसके बिना आखिर यह कैसे अनगिनत पीड़ित आत्माओं को शांति और इत्मीनान दे पाता! क्या वह सुकून अविचारित आस्था और प्रश्नहीनता की शरणस्थली मात्र है, वह शांति जो बंदरगाह में सुरक्षित होने से मिलती है, खुले समंदर के तूफानों से महफूज, या यह इससे कहीं अधिक कुछ अधिक है?’
नेहरू के पास इन सारे प्रश्नों का अंतिम उत्तर नहीं था और इसे स्वीकार करने में उन्हें संकोच नहीं था। इसीलिए उनमें धर्मयोद्धा या प्रचारक वाला उन्मादी उत्साह न था।
उसका बाह्य रूप उन्हें आतंकित करता था, फिर भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि ‘इसमें कुछ और चीज थी, कुछ ऐसी चीज जो मनुष्यों की किसी गहरी आंतरिक आकांक्षा की पूर्ति करती थी। इसके बिना आखिर यह कैसे अनगिनत पीड़ित आत्माओं को शांति और इत्मीनान दे पाता! क्या वह सुकून अविचारित आस्था और प्रश्नहीनता की शरणस्थली मात्र है, वह शांति जो बंदरगाह में सुरक्षित होने से मिलती है, खुले समंदर के तूफानों से महफूज, या यह इससे कहीं अधिक कुछ अधिक है?’
नेहरू के पास इन सारे प्रश्नों का अंतिम उत्तर नहीं था और इसे स्वीकार करने में उन्हें संकोच नहीं था। इसीलिए उनमें धर्मयोद्धा या प्रचारक वाला उन्मादी उत्साह न था।
जनता में शिक्षा की आवश्यकता वे महसूस करते थे, लेकिन अपने हर संबोधन में वे जनता को सोचने और विचार करने की सही पद्धति अपनाने पर जोर देते रहे। असल बात थी सोचना, सीखना।
दिनकर ने लिखा, ‘भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है।’ लेकिन भारत-चीन युद्ध के समय वे अपनी इसी परिभाषा को भूल गए। नेहरू, अलबत्ता यह नहीं भूले। वे किसी भी कीमत पर सैन्यवादी राष्ट्रवाद की हिमायत नहीं कर सकते थे।
नेहरू राजनेता थे, सत्ता का प्रयोग करना उनकी बाध्यता थी। लेकिन उनके सोचने का तरीका साहित्यिक था। ताज्जुब नहीं कि बिल्कुल अलग-अलग स्वभाव के लेखकों के वे प्रिय थे। चाहे मैथिलीशरण गुप्त हों या महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर या हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय या मुक्तिबोध, नेहरू के लिए हर किसी के दिल में जगह थी। यहां तक कि नागार्जुन के मन में भी।
नेहरू की निजता और उनकी सार्वजनिकता के बीच का द्वंद्व खत्म न हुआ। ‘राष्ट्रपति’ नामक एक निबंध में, जो आत्मोपहास है, उन्होंने लिखा, ‘निजी चेहरे सार्वजनिक जगहों में/ बेहतर और सुंदर हैं/ बजाय सार्वजनिक चेहरों के निजी जगहों पर।’
नेहरू राजनेता थे, सत्ता का प्रयोग करना उनकी बाध्यता थी। लेकिन उनके सोचने का तरीका साहित्यिक था। ताज्जुब नहीं कि बिल्कुल अलग-अलग स्वभाव के लेखकों के वे प्रिय थे। चाहे मैथिलीशरण गुप्त हों या महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर या हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय या मुक्तिबोध, नेहरू के लिए हर किसी के दिल में जगह थी। यहां तक कि नागार्जुन के मन में भी।
नेहरू की निजता और उनकी सार्वजनिकता के बीच का द्वंद्व खत्म न हुआ। ‘राष्ट्रपति’ नामक एक निबंध में, जो आत्मोपहास है, उन्होंने लिखा, ‘निजी चेहरे सार्वजनिक जगहों में/ बेहतर और सुंदर हैं/ बजाय सार्वजनिक चेहरों के निजी जगहों पर।’
जवाहरलाल का चेहरा और उनका स्वर निश्चय ही निजी है…भीड़ या सार्वजनिक सभाओं में भी उसका स्वर एक आत्मीय स्वर है, जो व्यक्तियों से अलग-अलग…घरेलू तरीके से बात करता लगता है…उसके चेहरे से राज खुल जाता है, क्योंकि उसका मन अजनबी इलाकों और खयालों की ओर भटक जाता है, वह एक पल के लिए अपने संगियों को भूल जाता है और अपने मस्तिष्क के इन प्राणियों से बेआवाज बातचीत में डूब जाता है।’
इसी लेख में नेहरू ने लिखा कि फासिस्ट चेहरा हमेशा सार्वजनिक चेहरा होता है। उनका अभिशाप यह था कि इस सार्वजनिकता से उनकी मुक्ति न थी। जानते हुए कि इसमें क्षुद्रता का खतरा है, वे निजता बचाए रखने को अंत तक लड़ते रहे। क्या यह बात भी उनके खिलाफ गई कि राष्ट्रीय सार्वजनिकता में अपनी निजता का विलय करने से उन्होंने इनकार किया? क्या नेहरू का यह निजी चेहरा, जिसने कलाकार अमृता शेरगिल को आकर्षित किया, राजनीति के लिए पहेली बना रहा?
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