Saturday, 6 June 2015

कलकत्ता जिसे आजकल कोलकाता कहा  जाता है , बंगला में सदैव से यही कहा जाता था , बंगला भाषा का ऐसा ही उच्चारण प्रयत्न होता है।
जमाने से कलकत्ता में सार्वजनिक परिवहन के साधन समाज में सार्वजनिक सामाजिक , सांस्कृतिक और आर्थिक स्वीकृति   पा  कर स्थापित हैं।
सन १९६६ से १९७२ के बीच का समय।
बगुईहाटी से  हावड़ा के  लिए ४४ नंबर की प्राइवेट बस।
कांकुरगाछी से बड़ा बाजार के लिये प्रति ब्यक्ति बीस पैसे भाड़ा लगता था। स्कूल के लिए प्रति दिन मुझे अपने बड़े भाई के साथ आना पड़ता था। बड़ी मुश्किल से घर से निकलते समय दोनों भाईयों को पचास  -पचास  पैसे मिलते थे।  शायद उसी में छोटी मोटी  जूते की मरम्मत , पेन्सिल , रबर , नीब या स्याही या बालपेन आदि का छोटा मोटा खर्च का भार भी सम्मिलित होता था। याद नहीं  कि कितनी बार भूखे पेट ही स्कूल के लिये चल दिये थे।
खैर बस भाड़े के उस बीस पैसे में से भी बचत करने के लिए कितनी बार हम दोनों भाई पैदल ही स्कूल आते -जाते थे याद नहीं।  कभी सियालदह  फूलबगान तक दस पैसे में बस यात्रा।  कभी कालेज स्ट्रीट से फूलबगान पंद्रह पैसे में यात्रा। भूखे पेट स्कूल से लौटना - रास्ते में अमरुद या और किसी खाने की चीज देख कर विचलित होना - हमारी दिनचर्या थी।  कभी मैं अधीर होता तो भैया मुझे आगे ले चलता , जब भईया हिम्मत हार कुछ खा ही लेने को उद्द्यत होता तो मैं उसे  लेता।
इस प्रकार रोज बीस से पचास पैसे तक किसी प्रकार बचा  जाते थे , पर घर आते ही मैं उन पैसों को उछाल उछाल कर तीन कमरों के तीन पंखों के ऊपरी कभर कप में फेंक डालता था।  लगभग प्रतिदिन।
कलकत्ता जब हमारा परिवार छोड़ रहा था तब वह रेजकी मेरे माताजी के सामने आई थी।  पिताजी तो मृत्युशय्या पर थे।  उन्हें तकरीबन कुछ पता ही नही था कि हम लोग कलकत्ता हरदम के लिये छोड़ रहे हैं।
मैं तो स्वयं मात्र सोलह का हुआ ही था।  मुझे भी कुछ खास पता नहीं था ,  रहता था इतना याद है।
कलकत्ता छोड़ते समय सत्यनारायण दीक्षित मास्टर की ट्युसन फीस बाकि थी।  रविन्द्र नाथ त्रिपाठी , जो संस्कृत के शिक्षक थे , का उपकार शिर पर था।  पी एन तिवारी अंग्रेजी के शिक्षक का कुछ कर्ज था।  पिताजी ने कुछ रिश्तेदारों से गहने  बंधक रख कर्ज लिया था। बाद में उन गहनों का कुछ पता ही नहीं चला।  वर्ष ७२  सोने की कीमत बढ़ती चली गयी , पिताजी ने  ७७ में शरीर छोड़ दिया उनके द्वारा जो घने बंधक रखे गये थे उनका पता लगाने के क्रम में अपनों से ही बैर तक हो गया।
पिताजी  पुराने इनकम टैक्स असेसी थे , अच्छी खासी फर्म थी - पर उनके लेन देन , एकाउंट्स , उनकी सम्पत्ति , पारिवारिक स्थिति कभी हम जान ही नहीं पाये।
किसे दोष दूँ।  वह सब अब भूल गया हूँ।
जमाना हुआ।
पर हाँ , एक समय था जब भविष्य दिखना तक बन्द हो गया था।
आज जब देखता हूँ तो सब कुछ एक सपना सा दीखता है। 

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