Wednesday, 17 June 2015

वह अन्धेरा था,
अपनी मृत्यु तय जान कर
जिसने खीच मारा था रोशनी के मुँह पर 
एक कुहरा !
रोशनी को ठिठकना ही पड़ा
और
सहना पड़ा वह दुःख,
जो अन्धेरा भी सह रहा था
अपने-अपने साझा दुःख के साथ दोनों ही वहाँ खड़े थे,
एक जोड़ी भ्रमित आँख भी थी वहाँ,
और एक
मंथन भी घट रहा था वहाँ
अजीब से समय में,
डरी हुई आँख
सोखना चाहती थी जमा हुआ कुहरा।
कुहरा भी सहमा सा टपक रहा था
धीरे-धीरे,
अजीब सा समय था !
अन्धेरा,
कुहरा,
आँख और रोशनी से
एक ही समय, एक साथ
झर रहा था दुःख

No comments:

Post a Comment