Wednesday, 24 June 2015

फट पड़े हैं कितने ही ज्वालामुखी मेरे ही अन्दर एक एक कर
और उन सबका गर्म लहू-वर्णा लावा आँखों में उतरता आया
कितना भी जज्ब करता हूँ - अपने ही अन्दर, रहता ही नहीं
यह गर्म लावा, सर्द सैलाब बन उमड़ता,सब डुबाते ही जाता .

अथाह गहरी आँखों में सपनों के कितने शहर बसते चले गये
हर जलजले -सितम के बाद ये और शिद्दत से बढँते चले गये
डुबाया इन्हें जिन्होंने जितना, ये  उतना उपर उठते चले गये
आयी जब जब कयामत, कामयाब कायनात बनाते चले गये .

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