Friday, 20 March 2015

मौलिक एवं महान समाजवादी चिन्तक और क्रान्तिकारी गांधीवादी 'डा. राम मनोहर लोहिया' का जन्म दिवस पड़ता है। अब से 103 वर्ष पहले 23 मार्च 1910 को डा. लोहिया का जन्म एक मारवाड़ी माहेश्वरी परिवार में होता है और वह देश के दलितों व पिछड़ी जातियों को सामाजिक - राजनीतिक भागीदारी दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष के रास्ते पर चलते रहे . वे जाने जाते थे , जाने जाते है और जाने जाते रहेंगे --

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  • नष्ट नही किया जा सकेगा उस विचार के प्रणेता 
  • विचार से विचारधारा तक की यात्रा 
  • लेखकीय प्रकाशन तंत्र के षड्यंत्र के शिकार 
  • नेहरु के षड्यंत्र के शिकार 


तीब्र्तम 

क्ल्प्नावादी
गुलाम भारत में ही भगत सिंह की फांसी के केवल चार साल बाद कांग्रेस में रहते हुए समाजवादी मंच की स्थापना किये । उन्होंने नौजवान भगत सिंह के कार्य को आगे बढ़ाया और स्वतन्त्र भारत में 'समाजवादी युवजन सभा' का गठन करके देश के नौ जवानों में समतामूलक व बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना का प्रण लिया।
डा. लोहिया ने संभवत: कोई ऐसा क्षेत्र नहीं छोड़ा जिसे अपने विचारों से प्रभावित न किया हो, यहां तक कि उन्होंने भारतीय साहित्य को भी बहुत गहरे तक प्रभावित किया।
स्वतन्त्र भारत में नेहरू के बाद यदि कोई राष्ट्रिय राजनेता 
कहे जाने का अधिकारी बना तो वह डा. लोहिया ही थे .
सामाजिक व आर्थिक गैर बराबरी को मिटाने का था जिसे भगत सिंह ने 'सर्वहारा वर्ग की सत्ता' का नाम दिया था मगर डा. लोहिया इससे और भी आगे बढ़े और उन्होंने नारा दिया कि 'जाति तोड़ो- दाम बान्धो।' इसके समानान्तर ही लोहिया ने पूरे दलित व पिछड़े वर्ग के समाज में आत्म सम्मान भरते हुए सत्ता पर बैठे विशेष तबके को खुली चुनौती देने की ठानी और नारा दिया कि 'राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान- टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान।'इस नारे ने पूरे देश में साठ के दशक में जादू का असर किया था और देखते ही देखते डा. लोहिया की पार्टी का प्रतिनिधित्व केरल से लेकर उड़ीसा व बंगाल तक और तमिलनाडु से लेकर असम तक हो गया था। असली सवाल आज के सन्दर्भों में डा. लोहिया की प्रासंगिकता का है।
डा. लोहिया के पिता अध्यापक थे . वे अकबरपुर , यु पी के रहने वाले थे.वे कलकत्ता मे विद्यासागर  कालेज में पोद्दार छात्र निवास में रह कर पढ़े थे .
वे अग्रवाल समाज के कोश से पढने के लिये इंग्लैण्ड- जर्मनी गये थे  .बर्लिन में लीग आफ नेशंस की बैठक  में उन्होंने भगत सिंह की फांसी  का विरोध सिटी बजकर दर्शक दीर्घा से किया और उन्हें सभा गृह से निकाल दिया गया .
मद्रास से कलकत्ता आने के लिये उन्होंने हिन्दू अख़बार में दो लेख लिखे थे जिंससे  उन्हें २५ रूपये प्राप्त हुए


कलकत्ता आने पर उन्हें रामेश्वर दास बिडला के यहाँ सचिव की नौकरी करने का मौका मिला था पर लोहिया यह नहीं किये . कालान्तर में उन्हें जमनालाल बजाज के पास भी ले जाया गया
पर लोहिया अधीन रह कर काम करने वाली मिटटी के बने ही नहीं थे

राजनीती,समाज निति उनका प्रिय विषय था .उन्हें अर्थशास्त्र की गहरी समझ थी .
उन्होंने समाजवाद का अलग दर्शन -विचार दिया .
उनके विचार तत्काल लोगों को समझ में नहीं आते थे .
सत्ता से जुड़े औद्योगिक घराने और उस समय का प्रभावशाली राजनैतिक तबका लोहिया से सहमत नहीं हो पा रहा था  पर लोहिया के प्रखर और अकाट्य विचारों को दबाने में असफल रहा .
लगातार उनकी मुखालफत होती गयी , उनके विरोधी बढ़ते रहे . पर वे दबे नहीं . उनहोंने अपने विचारों को प्रखरता से सभी जगह रखा .
तीब्र विरोध होता था , होगा ,हो रहा है - तब भी वे हतोत्साहित नही हुये .विकट अपमान ,प्रताड़ना ,अस्वीकृति ,उपहास , विरोध भी उन्हें यथास्थितिवाद का विरोध करने से नहीं रोक सके .
नेहरु तथा नेहरु के आस पास के लोगों को वे भलीभांति पहचानते थे इसीलिए वे नेहरु को झट पलटने वाला नट  कहते थे .
गांधीजी लोहिया की जिजीविषा , झुझारुप्न तथा स्पष्टवादित से प्रभावित थे .

लोहिया के ब्यक्तित्व  की यु एस पी उनका अक्खड़पन ,सरलता , सादगी ,दृढ़ता , तथा विचारों के प्रति सजगता थी .
वे कम्युनिस्ट विचारधारा के मूलस्वरूप के विरोधी थे तो राज्य के साथ जुट कर भ्रष्टाचार के भी धुर विरोधी थे .सत्ता के साथ धन का घालमेल उन्हें नहीं सुहाता था .
बस इसी कारण कलकत्ता में उनके विरोधी थे और दिल्ली या कांग्रेस में भी उनके विरोधी रहे .पर देश का बुद्धिजीवी वर्ग उनका मुरीद होने लगा था.
वैसे लोहिया जीवन पर्यन्त एक विशिष्ट संस्कार और संस्कृति की पहचान बन कर रह गये . वे कड़ा बोलते थे , अड़ कर बोलते थे , निडर बोलते थे , बे-लिहाज बोलते थे .वे शोषण के हर आयाम के खिलाफ बोलते थे , वे शोषण करने वाले हर तबके के पर्दे खोल देते थे .उनकी आलोचना इतनी पैनी -तीखी -तीती  होती थी की उनकी आलोचना को पचा पाना सब के बस कीबात नहीं होती थी - उनकी आलोचना को नजर अंदाज करना भिकिसी के बूते के बाहर होता था .उनके अपने भी , उनकी पार्टी के लोग भी डरते थे की यह सख्श तो उन्हें भी नहीं बख्सेगा .
प्रखर विद्वान् ,सभी मूर्धन्य वाचार्कों के सम्पर्क में आ जाने के कारण उनके विचार ब्यापक एवम सर्वकालिक होते थे  उनसे निहित स्वार्थ वाले लोग सहमत नहीं हो पाते थे वे उनका , उपहास उड़ाते , उन्हें उत्तेजित करते , अनावश्यक आलोचना करते। वे अपने क्षुद्र स्वार्थ में उनका विरोध करते , करवाते , कुचक्र रचते ,रचवाते। उनका जम कर विरोध 
होता था . जो उनसे असहमत होते थे वे भी डर तो जाते ही थे की बात में दम है
उनको और उनके विचारों कोजो मान्यता उनकी मृत्यु के बाद मिली वैसी मान्यता कम से कम भारत में तो किसी विचारक को तो नहीं ही मिली . लोहिया-वाद की एक अमरविचार धारा  बह रही है जिसमे आज विलम्ब से ही सही मारवाड़ी समाज के लोग भी सोचने-समझने की कोशिश तो कर ही रहे है .
 आज का यह क्षण  इस बात का गवाह है की लोहिया आज उनके लिये भी प्रासंगिक हो चले हैं  जिनके लिये वे कभी एक पागल -पगलेट , घसका हुआ ,मुन्ह्फट  , बदतमीज ,दल्लाल आदि अदि होते थे .यही वही सख्श है जिसको  कल्कात्ते के सत्यनारायन पार्क के पास सात तल्ले वाली बिल्डिंग के नीचे इसी समाज वालों ने बेइज्जत किया था - नेहरु के चमचों ने और गाँधी के विरोधियों ने .
आजन्म हिन्दुमुस्लिम एकता का यह पैरोकार अपने लोगो की उपेक्षा का शिकार रहा . इनके अपने लोगो ने कुछ लाईसेंस , कुछ कोटा , कुछ अन्य लालचों में पड़ कर इन्हें पनपने नहीं दिया ,लाल-झंडे वालों से भी दोस्ती लोगों ने की केवल लोहिया को नीचा दिखने के लिये . नेहरु का चरण चुम्बन किया कुछ इनकम टैक्स  के प्रावधानों को बनाये रखने के लिये - कोटा राज को चालू रखने के लिये .
लोहिया ऐसे लोगों को खटकते थे .
लोहिया पर बात करने का मतलब है खरा खरा सुनने सुनाने  की ताकत रखना ,  खरा खरा-कड़ा-कड़ा सच बोलने और उसके लिये अदने को तैयार रहना .लोहिया का मतलब है महीनों बाल में कंघी नहीं .लोहिया का मतलब है लिख दिया सो थीसिस, एनालिसिस  , बोल दिया  सो सिद्धान्त,केवल भाषण भर नहीं  , बैठ गये तो धरना या बैठक ,मिटिंग , चल दिये  तो आन्दोलन ,मार्च, जुलुस , विरोध .

वे आंकड़ों के साथ सोते बोते , जागते , बोलते थे - अनर्गल नहीं।  वे पढ़ कर नहीं सोच-शोध-गुन -समझ कर ही बोलते या लिखते थे कई बार तो वे बिना किसी तयारी के मार्च पर घल पड़ते थे -जब वे नकल चुके होते थे तब लोगों को मालूम होता था उनका उद्देश्य  और  निर्णय . और लोग दौड़ पड़ते थे . सच मुच वे अकेले चल पड़ते थे और कारवां बनता जाता था , जब उन्हें पैसों की जरूरत होती थी तो किसी से कागज मांग कर एक आध घंटे में कुछ लिख दिया करते थे और अपने किसी युवक साथी से उसे किसी प्रेस हॉउस तक पहुँच देने की जुगत भिड़ते थे और हर बार उन्हें उनकी उम्मीद से अधिक का चेक मिल जाया  करता था।  उनहोंने अपने लिखने या बोलने का कभी मूल्य तय नहीं किया- प्रेस पत्रिका वाले ने यदि कुछ दिया जो विश्व भर की प्रेस वाले उनके लिखे के आने का इंतजार करते थे और उनके लिख्र को सलामी की तरह मान्यता मिली 
.जब कभी कोई प्रे -पत्रिका -वाले उन्हें कुछ लिखने या बोलने का आग्रह करते थे तो यदि उन्हें पैसों की तत्काल आवश्यकता नहीं होती थी तो वे कहते थे की जब मुझे पैसों की आवश्यकता  होगी तो आपके प्रस्ताव पर विचार करूँगा . वैसे उन्होंने अपने समाजवादी चिंतन और पार्टी कामों के लिय लिख लिख कर जरुरत के अनुसार उसी निमित्त धन पार्टी को दिया . यदि किसी कार्य करता को कोई आकस्मिक आवश्यकता पड़ ही जाती थी तो वे उसे आनन् फानन में कुछ लिख कर देते थे और उसे कहते थे की अमुक्प्रेस वाले को दे दोऔर जो पारश्रमिक दे उसे नगद यबेयरर चेक से ले लेना और अपना काम चलाना .वे अपने साथियों तक से पाकेट तक झडवा लेते थे. अनाज तक बाँध-बंधवा लेते थे . उत्तेर्प्र्देश , बिहार , मध्यप्रदेश ,पंजाब के इलाके में देहातों में , कालेजों में , विद्यार्थियों के बीच वे खासे लोकप्रिय थे . सत्ता के दलाल उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते थे .
दलाल , चाहे वे किसी भी स्तर पर थे उनके एक नम्बर के दुश्मन थे , वे फटके बजी और फारवर्ड ट्रेड के आड़ में या ब्रोकरेज की आड़ में होने वाली आर्थिक गड़बड़ियों का बेदर्दी से पर्दा फस करते थे .
वे अपनों को भी उनकी गलतियों पर अथवा सिद्धान्त के आधर पर त्याग देने वाले थे . उन्होंने एक्स्धिक बार अपनी ही पार्टी के लोगों के खिलाफ ,सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद की
उनके बारे में कहना सुनना है तो खुद की आलोचना करना ,सहना सीखना ही होगा.वे बहुत कडवी दवा थे .निर्मम सर्जन थे .पर वे सदैव समाज के दबे -कुचले , अन्याय से पीड़ित लोगों की भाषा ही बोलते थे , वह भी उन्हीं लोगो के लिये . उन लोगो के लिये वे अक्सर अपने ही लोगो से लड़ जाते थे- नेहरु से लड़ना तो उनका यूएस पी था .
लोहिया के विचारों की प्रासंगिकता जांचने समझने का समय जिस समाज को मिल जाये,समझ लीजिये वह समाज स्वस्थ है ,उगने बढ़ने ,स्वरक्षा के लिये तैयार है .
लोहिया अपनों  के बीच में अपनों की  खामियों को बताते थे . वे अपनों की प्रसंसा करने से बचते थे .जो उनके अत्यंत प्रिय होते थे उन्हें भी उनके इस जटिल स्वभाव से दो चार होना पड़ते थे . गांधीजी इस बात को समझ चुके थे .वे जानते थे की यह युवक तर्क एवं विचर की बात करता है , स्वार्थ वश न तो कुटिल बोलता है ,न सोचता है इस लिये कडुआ सच बोलता है . गांधीजी जानते थे यह दूर की सोच कर भविष्य की बात बोलता है

आज लोहिया यहाँ होते तो आप  सभी को उनसे केवल आपकी-उनकी अपनी आलोचना तथा भविष्य  की योजना एक अत्यंत ब्यापक परिदृश्य तथा सामाजिक सरोकार में ब्यवहार  तथा उसके फलाफल  के बारे में कडुवी बात ही सुनने को मिलती .वे विरुदावली गाने वाले भाट  नहीं थे.

उन्हें व्यक्तिगत आर्थिक स्वार्थ के लिये सत्ता तथा धन का छद्म जोट्टा पसंद नहीं था . वे उसके विरोधी थे . शायद इसी कारण कलकत्ता  का वह वर्ग जो उन्हें अपना मैनेजर आदि देखना चाहता थे वह उनके जीवन पर्यन्त उनको पचा नहीं पाया . इस वर्ग के विरोध के बावजूद जब लोहिया जी की स्वीकार्यता बढती गयी , कई बार गांधीजी द्वारा उनके पक्ष और विचारो की प्रशंसा उनके विरोध का कारण बनी  .नेहरु और कलकत्ते  का धनाढ्य वर्ग का षड्यंत्र अधिक सक्रिय हो जाया करता था  .लोहिया जि ने गांधीजी को

इसके कुप्रभाव के बारे में बताया .खास कर स्वतन्त्रता के ठीक पूर्व .
लोहिया को जिस पृष्ठभूमि मे नेहरु के हठ के कारण  स्वतन्त्रता मिली वह पसंद नहीं थी .
लोहिया स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतिम क्षणों  के बर्बरीक थे , चश्म दीद गवाह थे  अन्याय या छ्द्म स्वार्थ परक राजनीति के धुर विरोधी .थे 
अंतिम छ्नों में गाँधी  के विरोधी उनके विरोधी हो चले .नेहरु के विरोधी तो उनके विरोधी थे ही , लोहिया साम्यवाद के विचारों में मौलिक त्रुटि  थे इस लिये वे साम्यवाद के भी आलोचक थे 
वे आधुनिक भारतीय राजनैतिक , सामाजिक पारिवारिक परिवेश  के श्याम बाबा थे - हारे के श्याम बाबा -कमजोर के श्याम बाबा  ,कृष्ण को भगवन जानते हुए भी कृष्ण के विरोध में खड़े होने के साहस वाले श्याम बाबा. भारतीय राजनीति में उन्होंने अपना शीश देकर भी अपना स्थान अनंत काल तक सुरक्षित कर लिया .
वे व्यक्ति थे धर्म बन गये , वे विचारधारा बन गये ,वे  अजस्र-धार विचार के प्रणेता हो गये - वे आज पहले से बहुत अधिक प्रासंगिक हो गये तभी तो आज इस हाल में आप जैसे सुधीजन के बीच मैं लोहिया जी को सगर्व याद कर रहा हूँ , स्थापित कर रहा हूँ 
जिस लोहिया जी का नाम सम्मेलन .के एक प्रस्ताव  में जुडवाने के लिये मुझे दो घंटे  मसक्कत करनी पड़ी , जिस नाम पर अंत में मुझे मेरे प्रेरणाश्रोत मोतीलाल जी सुरेका ,नथमल जी डोकानिया , ताराचंद जी ,यह तक की बाद में खुद शंकर लाल जी का ,समर्थन मिला और अंत में रतन सह जी का साथ मिला था आज उनका नाम गर्व के साथ ले कर मैं  धन्य हो रहा हूँ 
धन्यवाद आप सभी अभिभावकों का जिन्होंने मुझे लोहिया जी से जुड़ने का ,आपके सामने प्रस्तुत होने का यस अवसर प्रदान किया .  

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