Saturday, 30 August 2014

क्या गाँधी को मानव मान लेना इतना मुश्किल है .बुद्ध केवल सिद्धार्थ नहीं रह सकते .
क्या केवल दो ही रास्ते हैं -या तो गाँधी को महामानव मान लो या उसका निर्मम शिकार कर डालो .क्या ये ही दो विकल्प हैं .
हम दो अति विचारों के बीच पेंडुलम की तरह क्यों नाचते रहते हैं .क्या हम वास्तविक होकर स्थिर नहीं रह सकते .
यह सारा का सारा घालमेल ,विरोधाभास , वर्तमान को भूतौर भविष्य के अन्वश्य्क संघर्ष के कारण झेलना पड़ता है .
जिस प्रकार वर्तमान भूत का भविष्य है या था उसी प्रकार ये सहर गाँव ही तो थे . गाँव पदभ्र्ष्ट होकर या पथभ्रष्ट होकर शहर हो गये ,गांवों के स्खलित होने से शहर बस गये .गांवों कोस्खा लित होने दिया गया है .गांवों कोतुटने दिया गया है .गाँव टूटे नहीं हैं ,इन्हें तोड़ा गया है .हम फूटे नहीं हैं ,हमें फोड़ा गया है .टूटने और तोड़ने में फर्क हैं .फूटने और फोड़ने में फर्क है .
हमारे गांवों को तोड़ने - फोड़ने का सिलसिला आज का नहीं, बहुत पुराना है . गांवों में बस रहे हमारे भाई बहनों को भी तोड़ने फोड़ने का सिलसिला बहुत पुराना है .न जाने किन चिंतकों ने गांवों में चिंतन ही बंद करवा दिया था . चिंतन के लिए  जंगलों में ,पहाड़ी कन्दराओं में दुर्गम वियावान में जाना ही पड़ेगा .यह निर्धारित कर ग्राहर्स्थ जीवन में चिंतन का तो मनो निषेध ही कर दिया गया .पढने पढ़ाने की जो व्यवस्था विकसित की गयी ,उसके तर्क समझ के परे हैं .सुनी हुई बात (श्रुति ) या याद की हुई बात  (स्मृति )ही पढ़ी पढाई जा सकती है . समझ में नहीं आता इन श्रुतियों या स्मृतियों का क्या आधार रहा होगा .गाँव का आदमी जीविकोपार्जन करते समय श्रुतियों से या स्मृतियों से दूर हो ही जायेगा .समझ में नहीं आता भारतीय ग्रामीण संरचना में यह मौलिक त्रुटि क्यों हुई .
यदि इसे विकास की आरंभिक अवस्था की त्रुटियों अथवा विकास किआराम्भिक अवस्था की सीमाओं के रूप में भी देखा जाये तब भी बात समझ के परे है .
उपलब्ध प्रमाण यह स्थापित करते हैं और उन प्रमाणों से यह दीखता है की हमारे ग्रामीण परिवेश में अभी भी ऐसे शोधित ज्ञान के अंश विद्यमान है जो इक्कीसवीं सदी के भूवैज्ञानिकों ,नक्षत्र वैज्ञानिकों ,जिव-वैज्ञानिकों , कृषि-वैज्ञानिकों आदिके शोध के भी आगे का शोधित ज्ञान हैं .ऐसे प्रमाण है की हजारों साल पहले भी भारतीय गांवों में आँखों से न दिखने वाले जीवों की संपुष्ट धारणा थी ,उस पर यथेष्ट काम -विचार हुआ था .ऐसे जीवों को पोषित करने वाली अथवा ऐसे जीवों की उर्जा शोषित करने की पद्धति भिस्थापित हो चुकी थी .
अतः यह नहीं कहा जा सकता कि गांवों में श्रुतिया स्मृति के नाम पर प्रचलित भ्रन्तियान्य ज्ञान या तथ्य अथवा जंगलों में गुफाओं में तप ,तपस्या मनुष्य के विकास की आरंभिक अवस्था थी .
किन्तु भारत के गांवों में अभी भी आपको खंड -खंड व्यक्तित्वके जीवित मानव पशु मिल जायेंगे और ठीक इसके विपरीत कहीं कहीं आश्चर्यजनक घनीभूत क्षमता का श्रोत मिल जायेगा.
ऐसा क्यों है?

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