Tuesday, 19 August 2014

हर रास्ते की एक कहानी होती है , किसी किसी को किसी की जुबानी यह कहानी पता चल जाती है , कोई इसे समझ जाता है , कोई इसे समझा पाता है - अधिकांश को रास्तों के इतिहास भूगोल की कोई जानकारी ही नहीं हो पाती , उन्हें रास्तों के इतिवृतान्त में रूचि ही नहीं होती -जगती ही नहीं।
वे रास्तों को देखते तो हैं , उन रास्तों पर चलने को मचलते नहीं।
यदि उन रास्तों पर चला भी दिया गया या उन्हें उन रास्तों पर चलने को विवश ही किया गया तो वे आँख बंद कर उन रास्तों को सरकते हुए भोग भर देंगें। उनका रास्ते से कोई तादात्म्य स्थापित ही नहीं होता।
न रास्ता उन्हें जानता है न वे रास्ते को।
उस रास्ते पर चले, उनके साथ चले, लोग भी उन्हें नहीं जानते , जिक्र तक नहीं। वे भी बिना स्मृतियों के चल देते भर हैं , क्यों चले -पता नहीं।  कैसे चले -पता नहीं।  कहाँ तक चले , कहाँ से चले , किसके साथ चले , किसके सहारे चले - कुछ भी तो उन्हें पता नहीं।
वे रास्ते के बारे में किसी को क्या बतायेंगें ?
अपना चला दूसरों को नहीं बताना सामाजिक अपराध है। यह बेईमानी है। आपका अनुभव सार्वजनिक सम्पत्ति है।  यह आपके पास समाज की धरोहर है। आप इसे अपने पास नहीं रख सकते। अपने अनुभवों को बिना सार्वजनिक किये इस दुनिया को यदि आपने छोड़ दिया तो यह पूरी भावी पीढ़ी के साथ किया गया आपका दुराचार है , व्यभिचार है। 

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