वैसे भी क्या छिपाऊंगाक्या ? छिपाने लायक है ही क्या ?
जो कुछ भी है सब कुछ आप लोगों के सामने ही तो है .सब कुछ आपके और मेरे बीच से ही तो है . ऐसा कुछ भी नहीं जो आप में है और मेरे में नहीं . सच तो यह है की हम सब मूल रूप से एक ही है . हम सभी में मूल रूप
से सब कुछ एक ही है , केवल अनुपात अथवा अवस्था भेद है . किसी में कोई मात्रा अधिक कोई कम . यह अनुपात भेद भी संस्कारों के कारण होता है . ये संस्कार मेरे और आपके जन्म लेने के बाद बने हो ,जरूरी नहीं . जन्म के पहले के भी हो सकते हैं .
सच तो यह है की विज्ञान ने भी आपको यह बात बताई है . आप भी इसे समझ सकते हैं . मैनें भी तो इसे भोगा है .
यह संस्कार भेद जन्मके पीछे से ही चला आता है .
इसी भेद के कारण हममे , आपमे अनुपात भेद हो सकता है . इसी कारण हम और आप अलग अलग दिखते हैं , सोचते हैं ,कर सकते हैं ,करा सकते हैं . किन्तु हममे तथा आपमें सभी कुछ एक ही है - मात्रा भेद के अलावा . इस मात्र भेद में जोड़ घटाव गुना भाग के कारक होते हैं जन्म स्थान , संगति , शिक्षा ,दर्शन , श्रवण , स्पर्श , धराकृति , वायु , प्रकाश , ताप , जल , आदि। अन्य अनेक कारक हो सकते हैं .
ये संस्कार शारीरिक ,मानसिक ,और सूक्ष्म ,तीनों तलों पर काम करते हैं .इन संस्कारों में एक उर्जा होती है .सीमा भी होती है .यही सीमा तथा उर्जा हो कर पदार्थ प्रतीत होती है .संस्कारों में यही उर्जा अनंत काल से चले आ रहे सूर्य का रूप ले लेती है .पुनः परावर्तित हो कर संस्कार पैदा करती है .सूक्ष्म से सूक्ष्मतम यह ऊर्जा यानि सीमा ,यही तो संस्कार है .
मैं सूंघ रहा हूँ ,मैं सुन्घुन्गा,मैंने सुंघा था ,यह उर्जा को जन्म देती है .
मेरे विचार निरर्थक ही क्यों नहीं हो ,उनका कोई स्वरूप हो अथवा नहीं ,उनका कोई गंतब्य मुझे या आपको दिखे या नहीं , वे हैं ओर वे कोरी कल्पना नहीं है। वह अनुचित या उचित हो सकते है ,वह नैतिक है या अनैतिक हो सकते है - ये सारी बातें दूसरी है।
पर , पिछले ५३-५४ वर्षो में मैंने महसूस किया की ये प्रत्येक विचार या विचार खंड उर्जा ही है -विचर उर्जा का कलेवर ,विचार उर्जा का शरीर , या यूँ कहिये कि विचार ही उर्जा है .समझ में नहीं आता प्रत्यक्ष विचार है या प्रत्यक्ष उर्जा .
पहाड़ , नदी नाले ,कूड़ा -करकट सब कुछ तो उर्जा ही है और सब कुछ विचार भी . मैं और आप भी विचार ही तो हैं और इस कारण उर्जा भी .
या यूँ कहिये हम और आप और जोआप देख रहे हो सब उर्जा का साकार रूप ही तो हैं .
यों उर्जा सभी रूपों में साकार ही है , जिसे आप अत्यन्त ठंडा कहते हो वह भी उर्जा , जिसे प्रचंड - अति - प्रचंड गरम कहते हो वह भी उर्जा , जिसे आप विकट आकार में देखते हो वह भी आकार और जिसे आप नहीं देख पाते वह भी आकार ,
लोहा तो लोहा है .सामान्य परिस्थितियों में भी उसका एक तापक्रम है ही .इसे आग में डाल दें.वह लोहा अब भी ताप धारण करता है .साधारण स्थिति में यदि कम गरम है तो छू कर पता चलेगा,देख कर नहीं ,यदि लोहे ने अधिकु उर्जा धारण कर ली तो वह लाल तपने लगेगा .अब दूर से देखने पर पता लग जायेगा ..और अधिक तप गया तो दूर से देखने ही पता चल्जयेगा .आँख बंद कर भी आप तपन पता चला सकते हैं .उर्जा देखने के लिये आँखों की जरूरत नहीं होती ,एकाग्रता है ,सजगता है ,माध्यम है सतत अभ्यास और क्रिया है तो आप उर्जा को आते जाते ,चलते फिरते देख ,सुन , समझ सकते है , उर्जा का आभास दे-ले सकते हैं .
जो कुछ भी है सब कुछ आप लोगों के सामने ही तो है .सब कुछ आपके और मेरे बीच से ही तो है . ऐसा कुछ भी नहीं जो आप में है और मेरे में नहीं . सच तो यह है की हम सब मूल रूप से एक ही है . हम सभी में मूल रूप
से सब कुछ एक ही है , केवल अनुपात अथवा अवस्था भेद है . किसी में कोई मात्रा अधिक कोई कम . यह अनुपात भेद भी संस्कारों के कारण होता है . ये संस्कार मेरे और आपके जन्म लेने के बाद बने हो ,जरूरी नहीं . जन्म के पहले के भी हो सकते हैं .
सच तो यह है की विज्ञान ने भी आपको यह बात बताई है . आप भी इसे समझ सकते हैं . मैनें भी तो इसे भोगा है .
यह संस्कार भेद जन्मके पीछे से ही चला आता है .
इसी भेद के कारण हममे , आपमे अनुपात भेद हो सकता है . इसी कारण हम और आप अलग अलग दिखते हैं , सोचते हैं ,कर सकते हैं ,करा सकते हैं . किन्तु हममे तथा आपमें सभी कुछ एक ही है - मात्रा भेद के अलावा . इस मात्र भेद में जोड़ घटाव गुना भाग के कारक होते हैं जन्म स्थान , संगति , शिक्षा ,दर्शन , श्रवण , स्पर्श , धराकृति , वायु , प्रकाश , ताप , जल , आदि। अन्य अनेक कारक हो सकते हैं .
ये संस्कार शारीरिक ,मानसिक ,और सूक्ष्म ,तीनों तलों पर काम करते हैं .इन संस्कारों में एक उर्जा होती है .सीमा भी होती है .यही सीमा तथा उर्जा हो कर पदार्थ प्रतीत होती है .संस्कारों में यही उर्जा अनंत काल से चले आ रहे सूर्य का रूप ले लेती है .पुनः परावर्तित हो कर संस्कार पैदा करती है .सूक्ष्म से सूक्ष्मतम यह ऊर्जा यानि सीमा ,यही तो संस्कार है .
मैं सूंघ रहा हूँ ,मैं सुन्घुन्गा,मैंने सुंघा था ,यह उर्जा को जन्म देती है .
मेरे विचार निरर्थक ही क्यों नहीं हो ,उनका कोई स्वरूप हो अथवा नहीं ,उनका कोई गंतब्य मुझे या आपको दिखे या नहीं , वे हैं ओर वे कोरी कल्पना नहीं है। वह अनुचित या उचित हो सकते है ,वह नैतिक है या अनैतिक हो सकते है - ये सारी बातें दूसरी है।
पर , पिछले ५३-५४ वर्षो में मैंने महसूस किया की ये प्रत्येक विचार या विचार खंड उर्जा ही है -विचर उर्जा का कलेवर ,विचार उर्जा का शरीर , या यूँ कहिये कि विचार ही उर्जा है .समझ में नहीं आता प्रत्यक्ष विचार है या प्रत्यक्ष उर्जा .
पहाड़ , नदी नाले ,कूड़ा -करकट सब कुछ तो उर्जा ही है और सब कुछ विचार भी . मैं और आप भी विचार ही तो हैं और इस कारण उर्जा भी .
या यूँ कहिये हम और आप और जोआप देख रहे हो सब उर्जा का साकार रूप ही तो हैं .
यों उर्जा सभी रूपों में साकार ही है , जिसे आप अत्यन्त ठंडा कहते हो वह भी उर्जा , जिसे प्रचंड - अति - प्रचंड गरम कहते हो वह भी उर्जा , जिसे आप विकट आकार में देखते हो वह भी आकार और जिसे आप नहीं देख पाते वह भी आकार ,
लोहा तो लोहा है .सामान्य परिस्थितियों में भी उसका एक तापक्रम है ही .इसे आग में डाल दें.वह लोहा अब भी ताप धारण करता है .साधारण स्थिति में यदि कम गरम है तो छू कर पता चलेगा,देख कर नहीं ,यदि लोहे ने अधिकु उर्जा धारण कर ली तो वह लाल तपने लगेगा .अब दूर से देखने पर पता लग जायेगा ..और अधिक तप गया तो दूर से देखने ही पता चल्जयेगा .आँख बंद कर भी आप तपन पता चला सकते हैं .उर्जा देखने के लिये आँखों की जरूरत नहीं होती ,एकाग्रता है ,सजगता है ,माध्यम है सतत अभ्यास और क्रिया है तो आप उर्जा को आते जाते ,चलते फिरते देख ,सुन , समझ सकते है , उर्जा का आभास दे-ले सकते हैं .
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