Tuesday, 20 May 2014

खुशामद  तथा प्रशंसा भी उसी को पचती है जो उसका अभ्यस्त है . यह अभ्यास अक्सर विरासत में ही मिलता है .
जो विरुद के लोभ में या प्रशंसा के लिये नहीं ,दायित्व या कर्तव्य बोध से काम करना भर ही जानते  हैं वे सफलता का श्रेय भी ग्रहण नहीं करते .
मैंने १०-२० साल बच्चों -युवकों को शान से चरण स्पर्श करवाते देखा है यद्यपि की वे सामान्य बालक मात्र होते हैं  और उनके सामने ही उनको तमाम आदर सूचक शब्दों से संबोधित किया जाता है  जब कि  ऐसा किये जाने का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं होता . पर वे ऐसी परिस्थति में सगर्व बैठे  रहते हैं - शायद विरासत का अहंकार ही खुशामद या प्रशंसा को पचाने की ताकत देता है .

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