quoted from Dhruv Gupt ( FB)
मैं तुम सा हूं, मगर तुमसे ज़ुदा हूं !
कौन ऐसा पिता है जो अपनी संतान को बेचारा, दयनीय, भयातुर, पराजित, रीढ़विहीन, अंधभक्त और भिखारी की तरह अपने चरणों में झुका हुआ देखना चाहता है ? क्या आप पसंद करेंगे कि आपकी संतान अपनी निजता की हत्या कर आपकी तस्वीर पूजती रहे, आपके सामने अहर्निश गिड़गिड़ाती और याचना करती रहे ? हर पिता की ख्वाहिश होती है कि उसकी संतान विनम्र, लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज़ एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में विकसित हो जो ज़रुरत पड़ने पर उसकी आंख से आंख मिलाकर भी बात कर सके। अगर कोई ईश्वर है जो सारी क़ायनात का सर्जक, नियंता और पिता है तो उसके साथ हमारे रिश्ते इतने लिजलिजे और दयनीय क्यों हैं कि वह सब कुछ है और हम कुछ भी नहीं ? क्यों हम अपना व्यक्तित्व उसमें विलीन कर दें, अकिंचन बन जाएं और हर पल उसका स्तुति-गान करते रहें ? यह जड़ता है, मानसिक रोग है, दासता है - स्वस्थ संबंध तो कतई
नहीं ! क्या ईश्वर के साथ हमारे रिश्ते को फिर से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए ?
नहीं ! क्या ईश्वर के साथ हमारे रिश्ते को फिर से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए ?
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