Tuesday, 29 April 2014

दान ही देना हो तो स्पर्श का दान दो। स्व का त्याग ही त्याग है। स्पर्श देने या लेने के कुछ सामाजिक नियम हैं। स्मरण के बंध में ये नियम इतने न तो स्पष्ट हैं न ही उतने कठोर। देखने या सुनने , दिखाने या सुनाने, खाने या खिलाने, सुंघने या सुंघाने आदि के संबंध में नियम इतने ब्यापक नहीं है।
स्पर्श सामाजिक संबंधों की परिभाषा तथा सीमा तय करता है। स्पर्श आत्मीयता का चित्रण करता है।
स्पर्श स्वकीय नहीं परकीय है, जिह्वा का स्वाद स्वकीय है, दृष्टि ,श्रवण सभी स्वकीय है।
समाज ने जितनी चतुरता से स्पर्श का सीमांकन किया, विभिन्न स्तरों पर रखा, स्पर्श से मानवीय आवेगों के घनत्व तक को समझा, जोड़ा और तद्नुसार निर्धारित किया वह आश्चर्यचकित कर देने वाला हे।
सारे विश्व साहित्य में स्पर्श का जितना सुक्ष्म विवेचन है, जितने फलाफल निवेदित है इतना किसी अन्य ज्ञानेन्द्रीय से उत्पन्न ज्ञान के बारे में नहीं।
प्रकृति के सबसे निकट यही ज्ञान है, यही ज्ञानेन्द्रीय है।

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