Monday, 21 April 2014

मैं इमारती लकड़ियों का कोई पुराना पेड़ तो था नहीं कि तुम मुझे लकड़ियों के लिये काट ही डालते तब भी मैं तुम्हारे मशरफ का ही होता !
मैं नीम या अमरुद के पेड़ की नई टहनी भी तो नहीं की दतुवन के मशरफ के लिये मुझे तोड़ लेना ही जरुरी था।
मैं तो था फल फूल से लदा उपयोगी पेड़ जो अभी कई पीढियों तक तुम्हारे काम आएगा यह संकल्प मेरा था ।
तुम मुझे झुकाना चाहते थे ,अपने लालच के लिये।
मैं नहीं झुका और तुमने मुझे कहीं से तोड़ कर अपना आज का लालच पूरा किया।
हो सकता है एक बार फिर तुम ऐसा ही करो !
तुम्हारा उस बार भी लालच पूरा हो ही जाये !!
पर मैं जब जहाँ तोड़ोगे वहीं से फिर एक बार साँस लेने लगूंगा , अनंत नई कपोलों को निकालूँगा , फिर फ़ैल जाऊंगा - चारों और - झुंकुगा तो नहीं , नहीं भागूँगा , नहीं मिटूंगा - आगे बढ़ता ही रहूँगा -
आजतक कैसे बढ़ा हूँ ,कोई तुम्हारे भरोसे ?
आगे भी तुम्हारे भरोसे कभी  नहीं !!!!

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