आम अरुणाचली अभिवादन में ‘जय हिंद’ कहता है। वहां कुछ पड़ोसी प्रदेशों की भांति राष्ट्रविरोधी बगावत है ही नहीं। वहां कारागार नहीं निर्मित हुए। पांच दशक पूर्व जब चीन ने हमला किया था तो इन अरुणाचली किसानों और गृहणियों ने भारतीय फौजियों को अन्न, आश्रय और सूचना मुहैया कराई थी। अरुणाचली सब बौद्ध होते हैं जिनके इष्ट देव दलाई लामा को भारत में सम्मान दिया जाता है। सकंल्पशक्ति का अभाव दशकों से भारत सरकार में दिखता रहा है, जब बारबार चीन अरुणाचल वासियों को चीन आने का वीजा नहीं देता। चीन की जिद है कि अपने ही देश आने के लिए इन अरुणाचल वासियों को कैसा वीजा? भारत एक पुंसत्वहीन पुरुष की भांति अपने ही स्वजन पर अत्याचार देखता रहता है। तब जनता दल वाली गुजराल-गौड़ा की सरकार थी। उनकी विदेश राज्य मंत्री कमला सिन्हा ने राज्यसभा को बताया कि अरुणाचल मुख्यमंत्री गेगोंग अपांग को चीन ने वीजा देने से इनकार कर दिया। वामपंथी, विदेश नीति के माहिर इंद्र कुमार गुजराल दुरूहता को टाल गए। दिसंबर 2007 को लगभग सौ सदस्यीय आइएएस अधिकारियों को चीन यात्रा रद्द करनी पड़ी क्योंकि अरुणाचल के गणेश कोयू को चीन ने वीजा नहीं दिया। तब सुझाव आया कि भारत भी ताइवान गणराज्य के नागरिकों को अलग से मान्यता दे और वहां अपना राजदूतावास बनाए। मगर ऐसा निर्णय करना कलेजेवाली बात हो जाती। शौर्य भरा कदम होता।
यहां इस तथ्य को भी याद कर लें कि सत्रह वर्षों तक कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री अरुणाचल नहीं गया। वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह गए थे क्योंकि भारत की जनता का दबाव था कि क्या अरुणाचल प्रधानमंत्री के लिए वर्जित क्षेत्र है? हालत आज ऐसी है कि लुम्ला से कांग्रेसी विधायक टीजी रिंपोची ने अप्रैल 2008 में चीन की विस्तारवादी नीति के विरोध में जन-प्रदर्शन करना चाहा तो मनमोहन सिंह सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी।
भौगोलिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक तथ्यों के अलावा भी अरुणाचल को भारतीय मानने का एक बड़ा तर्क है जिसे विश्व मानता है। अंतरराष्ट्रीय कानून भी स्वीकार करता है। महर्षि रिचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम का आश्रम लोहित जनपद में आज के इटानगर राजधानी के समीप अरुणाचल में है। बौद्ध स्तूप यहीं सदियों पूर्व बने थे। कल्कि पुराण के अनुसार ऋषि शांतनु और उनकी पत्नी अमोघा यहां आश्रम बनाकर रहते थे। मत्स्यपुराण में अरुणाचल के मालिनीथान भूभाग की मिट्टी का विशद उल्लेख हुआ है। पुराण के अनुसार यहीं पार्वती ने कृष्ण को सत्यभामा से उनके विवाह पर फूल भेंट किए थे। कृष्ण ने पार्वती को मालिनी समझकर इस भूभाग को मालिनी क्षेत्र कहा था.
फिर भी अगर मनमोहन सिंह सरकार चीन के जियाबाओ से अरुणाचल को भारतीय कहने में हिचकें तो लोकसभा की बहस के अंश का जिक्र कर दें। तब (1956) रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन ने कहा था कि जिन सीमावर्ती क्षेत्रों पर चीन ने कब्जा किया है वह बंजर है। वहां घास भी नहीं उगती। जवाब में प्रश्न किया था देहरादून के कांगे्रसी सांसद महावीर त्यागी ने कि ‘मेरी गंजी खोपड़ी पर भी कुछ नहीं उगता है; तो उसे भी चीन को दे देंगे?’ उस वक्त नेहरू केवल मुस्कराए थे। आज लॉर्ड कर्जन की 1903 में कही बात याद कर लें: ‘हिमालय आज भारत की रक्षा करता है। वक्त आएगा कि भारत को हिमालय को बचाना होगा।’ सरदार पटेल, फिर लोहिया ने बहुत पहले इसे दुहराया था। भारत सरकार मूक रही। मगर फिर एक दफा मतदाता मुखर रहे। अपनी पसंद का बटन दबाया। भारतीय लोकसभा का सम्मान किया.
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