Saturday, 29 March 2014

वाह रे तूं
कतरा  कतरा ढालता रहा
मेरा प्याला यूँ भरता रहा
मेरी निगाहें थी समंदर  पर
तूं आबे जमजम पिलाता रहा .

दिये भर रौशनी भी मयस्सर न थी
तूं नूर ए आफ़ताब बख्शता रहा .
तरसता था एक बूंद को ,एक शक्ल को
तूने तो एक दरिया ,एक काफिला बना डाला .

झुकाने को एक सर भी न छोड़ा आपने
हर पहर कुर्बान मैं खुद को करता रहा .

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