Friday, 28 March 2014

वाह रे तूं
कतरा  कतरा ढालता रहा
मेरा प्याला यूँ भरता रहा
मेरी निगाहें थी समंदर  पर
तूं आबे जमजम पिलाता रहा
दिये भर रौशनी भी मयस्सर न थी
तूं नूर ए आफ़ताब बख्शता रहा .
तरसता था एक बूंद को ,एक शक्ल को
तूने तो एक दरिया ,एक काफिला बना डाला .

No comments:

Post a Comment