Monday, 17 March 2014

लगभग ६० का हो चला -साल दो साल ही तो कम है .अपनी यात्रा वृतांत लिखने की न जाने कब से कोशिश कर रहा हूँ .कई बार सोचता हूँ , क्या लिखूंगा . मैं चल ही कितना पाया हूँ !फिर सोचता हूँ , क्या मेरी गति एक कोल्हू के बैल की तरह नहीं रही . अपने और अपने परिवार की दाल रोटी के खूंटेमें बंधा मैं बस उसी के चारो ओर आँखों पर पट्टी बांधे चल रहा हूँ .
कभी कभी जीवन यात्रा के रास्ते पर निगाह आगे की ओर पड़ ही जाती है तो असंख्य मुझे अपने आगे दीखते हैं.
फिर बेचैनी शुरू हो जाती है .इतने सारे लोग मेरे से आगे  और मैं इतना पीछे . देखते -सोचते ही कुछ विचार बनने बिगड़ने लगते हैं .लघुता भर जाती है .निराशा छा जाती है .
फिर कभी मुड़ कर पीछे देखता हूँ तो उसी यात्रा पथ पर असंख्य लोग मेरे से भी पीछे हैं .इसे देख कर अपने आप पर हंसी भी आती है और गुस्सा भी . सोचता हूँ पीछे वालों के लिये मैंने क्या किया . कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैंने इन लोगों को पीछे छोड़ दिया ,इनका साथ छोड़ दिया .कभी सोचता हूँ किविकास के लिये क्या साथ छोड़ना जरुरी है . क्या ऐसा नहीं हो सकता कि स्वर्ग के द्वार पर कोई अड़ जाये कि मैं अकेले स्वर्ग नहीं जाऊंगा . क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विकास केरास्ते पर कोई लंगोटी पहन कर बैठ जाये कि जब तक सभी के पुरे शारीर  पर पूरा शरीर यश के साथ ढंकने भर  वस्त्रही  नहीं होंगे तब तक मैं भी केवल लंगोटी धारण करूँगा .

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