Wednesday, 18 September 2013

प्रश्न बड़े यायावर किस्म के रंगबाज होते है।
 एक तो सारे के सारे प्रश्न हमारे सामने एक बार में  आते नहीं ।कई बार प्रश्न एकाएक खड़े हो जाते है कि उन्हें समझने तक का समय नहीं मिलता।
 प्रश्न क्या गुरिल्ला पद्धति से पैदा होते हैं कि ये छिपते हुए चलते हैं।
 और कई बार रक्तबीज की तरह बढ़ते ही चले जाते हैं, एक के बाद एक, एक के साथ अनेक,अनेकों के साथ अनेक, कई एक बार एक से दिखने के बाद भी अलग अलग, और अनेकों बार अलग -अलग से दिखने के बाद भी मूल रूप में एक।
प्रत्येक प्रश्न की कद, काठी अलग ,वजन  अलग, प्राथमिकता अलग, स्वाद अलग  समाधान, निराकरण अलग।
लगता है,प्रश्नों की एक अलग ही दुनिया होती है- पहेलीनुमा दुनिया, कुछ भी सीधा-सपाट नहीं।
प्रश्न स्वयंभु लगते हें।आत्मज प्रकृति के हैं।बेलाग उठते -बैठते है, न जाने कब किसके पीछे लग जायें ।
इनमें अपने आप घटने बढ़ने की अद्भुत छमता अन्तर्निहित होती है। कभी कभी ये अचानक दुबक से जाते हें, हम सोचते हें -चलो पीछा छुटा,पर ये भला कब मानने वाले - चट से यहाँ नही तो वहाँ हाजिर, कई बार तो हू बहू उसी रूप में।
   प्रश्नों को आतिथ्य सत्कार सभी लोग अलग -अलग ढंग से करते हैं ।

मेरे प्रश्नोंकी आवभगत मेरे विरोधी खूब करते हैं। ये प्रश्न भी जब ना तब जा कर मेरे पड़ोसियों के यहाँ झाँकी मारते रहते हैं। पता नहीं, इन्हें वहाँ क्या मजा मिलता है। कई बार तो इनका जन्म भी वहीं हो जाता है- मेरे प्रशनों का कुनबा  मेरे पडोसियों के यहाँ अधिक फलता फूलता रहता है।

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