मानव जीवन अतुल्य है, प्रकृति की अनन्यतम रचना है, कृति है, प्रत्येक व्यक्ति समाज की धरोहर है। मानव जीवन जन्म से मृत्यु तक, पूरी यात्राके दौरान मानवीय गरिमा का हकदार है।
मानव जीवन की यात्रा मानव द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती।यह अपराध है।
यदि किन्ही परिस्थिति में ऐसा किया जाना अनुमत भी हो तो भी ऐसा तभी किया जाना चाहिये जब अन्य सारे विकल्प शेष न रह गये हो। विवशताकारी क्षणों में भी यदि समाज को यह निर्णय लेना पड़ता है तो भी समाज के लिये दुःखद है, चिन्ता का विषय है। समाज को चिन्तित तो हो ही जाना चाहिये।
मानव का जीवन अमुल्य है। उसे समाप्त करने का निर्णय कितना भी अपरिहार्य क्यों न रहा हो, विवशताकारी क्यों न हो, बुद्धिमत्तापूर्ण क्यों न हो, सामाजिक हित में क्यों न रहा हो, यह आनन्ददायी निर्णय तो हो ही नहीं सकता।
जो भी समाज अपने मानव -बध के निर्णय को न्यायोचित ठहराते हैं वे भी इस निर्णय को भारी मन से ही स्वीकारते हैं।
मैं आज किसी भी प्रकार न्याय के नाम पर भी प्रसन्न तो नहीं ही हो सकता।
न्याय के लिये यह मजबूरी में किया गया निर्णय भारी मन से स्वीकार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है पर इस पर मैं तालियाँ नहीं बजा सकता, हाँ शर्मिन्दा जरूर हो सकता हूँ कि मै भी उसी समाज का हिस्सा हूँ जिस समाज में मृत्युदन्ड् के अधिकारी रहते हैं, कहीं न कहीं उनके पाप के किसी हिस्से का अनजाने ही दोषी तो हम सभी समाज के लोग ही हैं कि हमारे सामने ही ऐसी स्थिति बार बार पैदा होती रहती है।
मेरी चिन्ता, शर्मिन्दगी और बढ़ जाती है जब मैं इस निर्णय पर अपने चारों और तालियों की आवाज सुनता हूँ- ---। लगा की मै हजारों साल पीछे चला गया।
दरिन्दगी का जबाब दरिन्दगी नहीं हो सकती, समाज की स्विकृति हो तब भी नहीं।
यह निर्णय आत्मावलोकन का अवसर देता है, उदास हो जाने का एक और कारण है तथा प्रार्थना करने का समय है कि पुनः इस तरह का निर्णय समाज को लेने के लिये विवश नहीं होना पड़े।
कम से कम खुश होने का तो कोइ कारण ही नहीं है।
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मानव जीवन की यात्रा मानव द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती।यह अपराध है।
यदि किन्ही परिस्थिति में ऐसा किया जाना अनुमत भी हो तो भी ऐसा तभी किया जाना चाहिये जब अन्य सारे विकल्प शेष न रह गये हो। विवशताकारी क्षणों में भी यदि समाज को यह निर्णय लेना पड़ता है तो भी समाज के लिये दुःखद है, चिन्ता का विषय है। समाज को चिन्तित तो हो ही जाना चाहिये।
मानव का जीवन अमुल्य है। उसे समाप्त करने का निर्णय कितना भी अपरिहार्य क्यों न रहा हो, विवशताकारी क्यों न हो, बुद्धिमत्तापूर्ण क्यों न हो, सामाजिक हित में क्यों न रहा हो, यह आनन्ददायी निर्णय तो हो ही नहीं सकता।
जो भी समाज अपने मानव -बध के निर्णय को न्यायोचित ठहराते हैं वे भी इस निर्णय को भारी मन से ही स्वीकारते हैं।
मैं आज किसी भी प्रकार न्याय के नाम पर भी प्रसन्न तो नहीं ही हो सकता।
न्याय के लिये यह मजबूरी में किया गया निर्णय भारी मन से स्वीकार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है पर इस पर मैं तालियाँ नहीं बजा सकता, हाँ शर्मिन्दा जरूर हो सकता हूँ कि मै भी उसी समाज का हिस्सा हूँ जिस समाज में मृत्युदन्ड् के अधिकारी रहते हैं, कहीं न कहीं उनके पाप के किसी हिस्से का अनजाने ही दोषी तो हम सभी समाज के लोग ही हैं कि हमारे सामने ही ऐसी स्थिति बार बार पैदा होती रहती है।
मेरी चिन्ता, शर्मिन्दगी और बढ़ जाती है जब मैं इस निर्णय पर अपने चारों और तालियों की आवाज सुनता हूँ- ---। लगा की मै हजारों साल पीछे चला गया।
दरिन्दगी का जबाब दरिन्दगी नहीं हो सकती, समाज की स्विकृति हो तब भी नहीं।
यह निर्णय आत्मावलोकन का अवसर देता है, उदास हो जाने का एक और कारण है तथा प्रार्थना करने का समय है कि पुनः इस तरह का निर्णय समाज को लेने के लिये विवश नहीं होना पड़े।
कम से कम खुश होने का तो कोइ कारण ही नहीं है।
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