Tuesday, 15 July 2014

बचपन से ही दो चार फूल हाथ, या एक माला और थोड़े से मखाना दाना या दो चार लड्डू ले कर मंदिरों में जाता रहता था।  बहुत कुछ महसूस नहीं हुआ।
बाद में जब बड़ा हुआ , समझ आई तो खुद पर खीज़ आती थी।  मैं भगवान को ठगने जा रहा हूँ या यह क्या नाटक कर रहा हूँ , भगवान को ,बड़ों को इस फूल, पड़ा , मेवा ,लड्डू वह भी अंजलि भर से क्या फर्क पड़ता है।
सोचता था  तो भगवान को मूर्ख बना रहा हूँ या अपने आप को।
और अब - जब कभी कोई दो चार  रसगुल्ला दोने में लिये आता है , कभी एक लौकी , सेर भर सेव , सेर दो सेर आम , एक आइसक्रीम ब्रिक , थम्स अप की की बोतल , पाव भर करौंदा , दो कटहल , चार गरम सिंघाड़ा , दो गरम कचौड़ी, सेर भर चुडा  ले ही आता है , तो उसके चेहरे के भाव , उसकी मनःस्थिति  देख कर सिहर जाता हूँ - कैसे कहूँ इसे की यह सब मेरे किस काम के - कैसे कहूँ कि इसे वापस ले जाओ।
फिर उनके चले जाने के बाद उनके ले कर आये  दो अमरूदों को देख देख कर आँखे गीली करने के सिवा मैं कुछ कर भी तो नहीं पाता।
यह क्या है ? समझ में नहीं आता !

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