शक्ति ही कर्मबन्ध का कारन है। मनुष्य को जीवन भर शक्ति का चिंतन करना चाहिये।
मूलरूप से मनुष्य में अनेक भाव देखे गये हैं। शांति भाव में मनुष्य सदैव नहीं रह सकता। शांति किसी विशेष विक्षेप के कारण ही शरीर धारण कर पाता है। तत्प्श्चात् चंचल भाव का एक एक कर आना जाना बना रहता है।
उदार लोगों की संगति के बाद धीरे धीरे स्वतः समझ में आ जाता है कि इन्हीं भावों को संयमित करना ,इन्हीं का निर्देशन करना करना ही जीवन का लक्ष्य है।
ये सरे भाव ,यहाँ तक की शांत भाव भी विशिष्ट दिशा में सदैव कार्य करते रहते हैं। इन्हीं भावों का निर्देशन अत्यंत महत्व की बात है।
पर यह सहज काम ,क्रिया नहीं है। अपने भावों को देखना ,अपने भावों की गति को देखना कठिन कार्य है। यह कार्य ,क्रिया सीखनी पड़ती है।
इस क्रिया का निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। ध्यानस्थ हो कर मनोभावों को देखना पड़ता है।
मूलरूप से मनुष्य में अनेक भाव देखे गये हैं। शांति भाव में मनुष्य सदैव नहीं रह सकता। शांति किसी विशेष विक्षेप के कारण ही शरीर धारण कर पाता है। तत्प्श्चात् चंचल भाव का एक एक कर आना जाना बना रहता है।
उदार लोगों की संगति के बाद धीरे धीरे स्वतः समझ में आ जाता है कि इन्हीं भावों को संयमित करना ,इन्हीं का निर्देशन करना करना ही जीवन का लक्ष्य है।
ये सरे भाव ,यहाँ तक की शांत भाव भी विशिष्ट दिशा में सदैव कार्य करते रहते हैं। इन्हीं भावों का निर्देशन अत्यंत महत्व की बात है।
पर यह सहज काम ,क्रिया नहीं है। अपने भावों को देखना ,अपने भावों की गति को देखना कठिन कार्य है। यह कार्य ,क्रिया सीखनी पड़ती है।
इस क्रिया का निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। ध्यानस्थ हो कर मनोभावों को देखना पड़ता है।
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