मैं अपने आप को ही बार बार खुद के सामने जानने ,समझने ,जांचने ,परखने के लिये उपस्थित करता रहता हूँ। मेरी अपनी चुनाई -बिनाई कुछ तो हो ही जाती होगी।
बहुत से आयाम जो आज या अभी तक मेरे सामने नहीं आये या जो आये पर मैं पहचान नहीं पाया , हो सकता है उनमे से कोई आज और अभी मैं जान समझ पाऊँ।
बहुत से आयाम जो आज या अभी तक मेरे सामने नहीं आये या जो आये पर मैं पहचान नहीं पाया , हो सकता है उनमे से कोई आज और अभी मैं जान समझ पाऊँ।
बस मेरे अपने आप की बार बार स्क्रीनिंग करने का ,अपना ही बखिया बार बार उखाड़ते रहने का यही कारण है , उद्देश्य है।
और अभी बहुत कुछ अनकहा है ,कुछ भी तो कह ही नहीं पाया !
उसे कहने का साहस भी इसी प्रकार बार बार अपनी ही पूर्ण छान बीन करने से आ सकता है।
वैसे आँखे लिखा पढ़ती कम है ,देखती अधिक। आँखे देख कर अपने मन से देखना -पढ़ना -समझना चाहती हैं। आप का लिखा पढ़ कर ज्यों का त्यों देख लेना या समझ लेना कम ही रुचता है। आँखें भी अपनी स्वतंत्रता की खोज करती रहती है। पढ़ कर देखना या देख कर पढ़ना ?
देख कर समझ कर पढ़ना और फिर समझना।
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