Monday, 14 July 2014

पिता हूँ, मैं भला किससे कहूँ ? कि - नैन गीले हैं ।
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युगों की सभ्यता ! पर, सोच के नाखून नीले हैं ॥
हमारी बस्तियां हैं या पुरातन के क़बीले हैं ??
मेरी बच्ची ! अँधेरे का सफ़र है, संभल कर चलना !
तुम्हारी राह के पत्थर बड़े पैने-नुकीले हैं ॥
भरोसा मैं करूँ किस पर ? तुम्हीं ख़ुद पर यक़ीं रखना !
यहां अहसास लोगों के बड़े ही सर्द-सीले हैं ॥
ख़ुद अपने फ़ैसले सारे हमेशा सोच कर लेना !
कहाँ किस मोड़ मुड़ना है, कहाँ सुनसान टीले हैं !!
तुम्हारी माँ ! उन्हें अक़्सर यही चिंता सताती है -
न तेरा घर बसा है औ न तेरे हाथ पीले हैं ॥
अभी से थक गयी ? हिम्मत जुटा ! पलकें खुली रख तू !
अभी तो आँख में तेरी कई सपने सजीले हैं ॥
ऐ लोगों ! किस तरह रोपूं मैं अपने प्यार का पौधा ?
नदी सूखी हुई है, घाट भी बलुए-रेतीले हैं ॥
त्रिवेणी पाठक

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