राजनीति बुराई है। केवल बुराई है। इसकी यदि कोई आवश्यक मात्रा है तो वह मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है। मनुष्य को विशेष रूप से राजनैतिक रूप संवेदनशील होने से बचना चाहिये। जिस प्रकार सामान्य स्थितियों में शारीर के लिए आवश्यक लवण ,खनिज , आदि हमें सामान्य भोजन में मिल ही जाते हैं उसी प्रकार सामान्य राजनैतिक दृष्टि व्यक्ति को सामान्य सामाजिक व्यवहार में सहज ही प्राप्त हो ही जाती है।
जिस प्रकार भोजन में अतिरिक्त रूप से उपर से सीधे नमक,चीनी ,घी आदि लेना उचित नहीं है उसी प्रकार सीधे राजनैतिक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी उचित नहीं है।
राजनीति का आधिक्य अन्य नीतियों को दूषित करता है।
धर्म नीति ,शांत तत्व है। समाज नीति , परिवार नीति ,सभी सामूहिक नीतियाँ है।
पर राजनीति में स्वार्थ तत्व इतना वेगवान हो जाता है कि इसके वशीभूत अर्जुन द्रोणाचार्य का वध कर
डालता है. भीष्म अकर्मण्य हो जाते है। अशोक चण्डाशोक बन जाते हैं। ओरंगजेब पितृद्रोही हो जाते हैं। विभीषण भतृद्रोही बन जाते है। राजनीति में पवित्रता नहीं रह जाती।
अतः जहाँ तक हो ,जितना सम्भव हो जितने क्षेत्रों में जितना संभव हो ,उन्हें राजनीति से बचाया जाना चाहिये। राजनीति के प्रभाव या छाया तक से बचाया जाना चाहिए।
शिक्षा ,शोध ,विज्ञानं आदि के क्षेत्रों में राजनीति का प्रवेश अनुचित है।
राजनीति ,अर्थात राजा की नीति ,अर्थात वह निति जो प्रजा की नहीं है ,रजा की है।
राजनीति अर्थात जिसके पीछे राज ,रहस्य हो अर्थात जो पारदर्शी नहीं हो।
राजनीति अर्थात राज्य नीति अर्थात व्यक्ति की नहीं ,राज्य की नीति।
राजनीति गुप्त नीति है ,सर्व साधारण के लिये धारण करने योग्य नहीं है।
वैसे यह भी सही है कि राजनीति के प्रभाव को राजनीति से ही काटा जा सकता है,रोका जा सकता है।
सच तो यह है कि राजनीति समाज में अंदर तक प्रवेश कर चुकी है। सारी जगहों पर राजनीति विदयमान है।
पहले की राजनीति के दुष्परिणामों को कैसे दूर किया जाये ,यह गम्भीर चिंता तथा चिंतन का विषय है। यह आज की राजनीति का विचारणीय विषय है।
किन्तु आज की राजनीति के अपने परिणाम ,दुष्परिणाम भविष्य में होंगे।
पूर्व का स्वार्थ आज विष बेल बन कर खड़ा है। आज क्या स्वार्थ नहीं है ?
आज का स्वार्थ भविष्य में विष वृक्ष बन कर समस्या नहीं बनेगा ,ऐसा कौन कह सकता है। स्वार्थ ,स्वार्थी ,तथा उनका समूह बड़ा ही आकर्षक होता है ,उनका वर्त्तमान बड़ा सुगठित ,सुंदर होता है। स्वार्थ में बड़ी तीब्रता होती है। राजनीति स्वार्थ की संगिनी है। राजनीति अनेकानेक श्रृंगार करती है।
राजनीती को विद्यालयो में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिये। शिक्षकों को भी राजनीति से बचना चाहिये।
पर राजनीति आवश्यक भी है। यह विरोधाभाषों को साधने की कला है। यह परस्पर प्रतियोगी संस्थाओं को लेकर एक बड़ी संरचना खड़ी करने का पराक्रम है। यह निर्माण की ही एक विधा है जो दीर्घकालिक निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
जिस प्रकार भोजन में अतिरिक्त रूप से उपर से सीधे नमक,चीनी ,घी आदि लेना उचित नहीं है उसी प्रकार सीधे राजनैतिक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी उचित नहीं है।
राजनीति का आधिक्य अन्य नीतियों को दूषित करता है।
धर्म नीति ,शांत तत्व है। समाज नीति , परिवार नीति ,सभी सामूहिक नीतियाँ है।
पर राजनीति में स्वार्थ तत्व इतना वेगवान हो जाता है कि इसके वशीभूत अर्जुन द्रोणाचार्य का वध कर
डालता है. भीष्म अकर्मण्य हो जाते है। अशोक चण्डाशोक बन जाते हैं। ओरंगजेब पितृद्रोही हो जाते हैं। विभीषण भतृद्रोही बन जाते है। राजनीति में पवित्रता नहीं रह जाती।
अतः जहाँ तक हो ,जितना सम्भव हो जितने क्षेत्रों में जितना संभव हो ,उन्हें राजनीति से बचाया जाना चाहिये। राजनीति के प्रभाव या छाया तक से बचाया जाना चाहिए।
शिक्षा ,शोध ,विज्ञानं आदि के क्षेत्रों में राजनीति का प्रवेश अनुचित है।
राजनीति ,अर्थात राजा की नीति ,अर्थात वह निति जो प्रजा की नहीं है ,रजा की है।
राजनीति अर्थात जिसके पीछे राज ,रहस्य हो अर्थात जो पारदर्शी नहीं हो।
राजनीति अर्थात राज्य नीति अर्थात व्यक्ति की नहीं ,राज्य की नीति।
राजनीति गुप्त नीति है ,सर्व साधारण के लिये धारण करने योग्य नहीं है।
वैसे यह भी सही है कि राजनीति के प्रभाव को राजनीति से ही काटा जा सकता है,रोका जा सकता है।
सच तो यह है कि राजनीति समाज में अंदर तक प्रवेश कर चुकी है। सारी जगहों पर राजनीति विदयमान है।
पहले की राजनीति के दुष्परिणामों को कैसे दूर किया जाये ,यह गम्भीर चिंता तथा चिंतन का विषय है। यह आज की राजनीति का विचारणीय विषय है।
किन्तु आज की राजनीति के अपने परिणाम ,दुष्परिणाम भविष्य में होंगे।
पूर्व का स्वार्थ आज विष बेल बन कर खड़ा है। आज क्या स्वार्थ नहीं है ?
आज का स्वार्थ भविष्य में विष वृक्ष बन कर समस्या नहीं बनेगा ,ऐसा कौन कह सकता है। स्वार्थ ,स्वार्थी ,तथा उनका समूह बड़ा ही आकर्षक होता है ,उनका वर्त्तमान बड़ा सुगठित ,सुंदर होता है। स्वार्थ में बड़ी तीब्रता होती है। राजनीति स्वार्थ की संगिनी है। राजनीति अनेकानेक श्रृंगार करती है।
राजनीती को विद्यालयो में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिये। शिक्षकों को भी राजनीति से बचना चाहिये।
पर राजनीति आवश्यक भी है। यह विरोधाभाषों को साधने की कला है। यह परस्पर प्रतियोगी संस्थाओं को लेकर एक बड़ी संरचना खड़ी करने का पराक्रम है। यह निर्माण की ही एक विधा है जो दीर्घकालिक निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
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