Chal udta ja re panchhi ,sara asman rahega tumhara
Friday, 28 February 2014
I pay respect that I am supposed to show to my seniors as and when required. I need not be nor I am supposed to be reverent .I have to be courteous but not to be flattering.I have to be smooth but never oily or slippery.I have to be honest to my duty, karm , dharm, and not to be loyal to individual. I must not be rough but I am not supposed to be sweet for some favour to me.
After all I have to be something more than a bare chair. I must have something more than power emitting out of an office.Let erudition be my power and wealth.
After all I have to be something more than a bare chair. I must have something more than power emitting out of an office.Let erudition be my power and wealth.
इक्कीसवी सदी के नौजवानो , अधिकारीयों , व्यापारियो ,वैज्ञानिकों ,विद्वानों -जैसे कल तक की पुरानी पीढ़ियां निभी हैं ,गुजरी है ,जीयी है ,,प्लीज अब आगे वैसे मत जीना,एक साँस भी नहीं,एक कदम भी नहीं , बस बहुत हुआ -अब और धोखा अपने आप से नहीं --
प्लीज,जिस राह मैं चला ,जैसे मैं चला- वैसे मत चलना।
भगवान न करे,मेरी तरह किसी को चलना,जलना, गलना पड़े।
प्लीज,जिस राह मैं चला ,जैसे मैं चला- वैसे मत चलना।
भगवान न करे,मेरी तरह किसी को चलना,जलना, गलना पड़े।
शहद, तुम कैसे और कब बनाये जाते हो
फुलों में भी जीवन मचलता ही जाता है
मधुमक्खियाँ नाच नाच गीत गाये जाती है
शहद, तुममें मिठास कब घोली जाती है।
रानी मधूमक्खी, जरा रूको, बताती जाओ
शहद की रेसिपी,एक बार,लिखाती जाओ
मिठास का सप्लायर,कौन है, बताती जाओ
थकती क्यों नहीं कभी, यही बताती जाओ
शहद घोलने को जी चाहता है सब जगह
डरता हूँ क्या ठीक रहेगा जीना इस तरह
बिना शोषण, देना पोषण, वह भी इस तरह
अनजानी मिठास घोलूँगा, मैं किस तरह।
फुलों में भी जीवन मचलता ही जाता है
मधुमक्खियाँ नाच नाच गीत गाये जाती है
शहद, तुममें मिठास कब घोली जाती है।
रानी मधूमक्खी, जरा रूको, बताती जाओ
शहद की रेसिपी,एक बार,लिखाती जाओ
मिठास का सप्लायर,कौन है, बताती जाओ
थकती क्यों नहीं कभी, यही बताती जाओ
शहद घोलने को जी चाहता है सब जगह
डरता हूँ क्या ठीक रहेगा जीना इस तरह
बिना शोषण, देना पोषण, वह भी इस तरह
अनजानी मिठास घोलूँगा, मैं किस तरह।
खड़ी चढ़ाइयों पर भी लोग चढ़ते ही ना हैं।
ढलान पर लुढ़कते तो सब हैं ;वहाँ खड़ा रहना मुश्किल तो है ,असम्भव नही। चारों ओर लोग चासनी देखते फिर रहे हैं ,फिसलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं , ठोकर मार मार कर लुढ़काने का प्रयास चल रहा है , लोग देख रहे हैं ,लुढ़कोगे कैसे नहीं ,कब लुढ़कता है ,गिरता है , हिला हिला कर गिरा रहें हैं ; एक तो यह ढलान जो लगभग सभी जगह हैं ,दूसरे ये सवाली बवाली मवाली।
पर मैं गिरूंगा नही ,ढ़लकुँगा नहीं। लुढकुंगा नहीं। स्थिर होके देखूंगा कि तुम मुझे गिराने के लिये कितने गिरते हो।
ढलान पर लुढ़कते तो सब हैं ;वहाँ खड़ा रहना मुश्किल तो है ,असम्भव नही। चारों ओर लोग चासनी देखते फिर रहे हैं ,फिसलने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं , ठोकर मार मार कर लुढ़काने का प्रयास चल रहा है , लोग देख रहे हैं ,लुढ़कोगे कैसे नहीं ,कब लुढ़कता है ,गिरता है , हिला हिला कर गिरा रहें हैं ; एक तो यह ढलान जो लगभग सभी जगह हैं ,दूसरे ये सवाली बवाली मवाली।
पर मैं गिरूंगा नही ,ढ़लकुँगा नहीं। लुढकुंगा नहीं। स्थिर होके देखूंगा कि तुम मुझे गिराने के लिये कितने गिरते हो।
My heart is not and can not be a crematorium . You cannot make it a graveyard of my dreams. It is never and cannot be a showcase, artificially decorated to attract prospective buyers.
It is a springly rivulet.
My life is the hot- summer- day - shadow of a big tree.
Have a sip,a dip and a nip-nip-nap. I will pat you ,care you and fare you across.
A finger on you lip,a cool nappy in my safe lappy- you 'll always be happy.
All the dreams are allowed here to play ,grow and live.
We always take personal care for each baby dream- even after they are grown adult-reality.
And more; we do not claim ownership or credit for your adulthood.
That is I, me, my mine and we, us ,our,ours.
It is a springly rivulet.
My life is the hot- summer- day - shadow of a big tree.
Have a sip,a dip and a nip-nip-nap. I will pat you ,care you and fare you across.
A finger on you lip,a cool nappy in my safe lappy- you 'll always be happy.
All the dreams are allowed here to play ,grow and live.
We always take personal care for each baby dream- even after they are grown adult-reality.
And more; we do not claim ownership or credit for your adulthood.
That is I, me, my mine and we, us ,our,ours.
Judging the judge is the most controversial issue. The aura of majesty around judge grows in ever-stretching ego of the judge. Ego breeds intolerance. Legal violence is not better than physical violence. Judicial authoritarianism is no substitute for political or democratic authoritarianism. A type of anarchy that may be even worse than another type of anarchies cannot be allowed to rule.Participatory system must prevail over the opaque elite system. Let all and every thing be discussed by one and all openly ,transparently.
Let not judges govern. Let them decide.
Let not the army govern. Let them guard.
Let not the barrel of a gun govern. Let it face only enemies.
Let not the wisdom of even the wisest alone govern. Let him show the path ahead.
Let them be our guide,guard and wellwisher. Do not allow them to dictate the terms.
You all are good, may be better or even the best but best never makes the best taste.We want to have a government of our taste, not always the best, A government of our taste will carry with you all the bests. Please contribute your best through the government of our taste.
Let not judges govern. Let them decide.
Let not the army govern. Let them guard.
Let not the barrel of a gun govern. Let it face only enemies.
Let not the wisdom of even the wisest alone govern. Let him show the path ahead.
Let them be our guide,guard and wellwisher. Do not allow them to dictate the terms.
You all are good, may be better or even the best but best never makes the best taste.We want to have a government of our taste, not always the best, A government of our taste will carry with you all the bests. Please contribute your best through the government of our taste.
अपमान भी कोई याद रखने की चीज है। पान कि पीक की तरह तुरत फैंक दीजिये। रोज बिना बुलाये चले आये धूल गरदे की तरह मिले या चले आये अपमान को कब तब बैठा कर रखेंगें, तुरत डस्टर से झाड़ कर साफ कर दें।
पर अपमान के साथ ही ऐसा व्यवहार क्यों?
आप मान को तो ताजिन्दगी अपने ड्राइंग रूम में बैठा कर साथ रखते हैं।कभी भूलते नहीं। बड़ै इतमिनान से संभाले रहते हैं।
मान मनपसन्द है,मनमाफिक है,टेस्टी है। अपमान दुःख देवन है, इसीलिये दोनो के साथ दो तरह का व्यवहार करते हैं, यही न।
पर अपमान आभिमान का नाश करता है, कुछ कह जाता है, कुछ समझा जाता है, स्वयं अपने कारणों के बारे में संकेत दे जाता है।
मान सोया हुआ अभिमान जगा देता है, बहुत कुछ भुला डालता है, गफलत मैं उलझा देता है और अपमान के रास्ते ढकेल डालता है।
अपमान के क्षणों को याद करते रहने से नुकसान कम होते हैं, वे बार बार आपको सावधान करते हैं। हाँ ,कभी -कभी उत्साह को कम करते हैं, विषाद से भर डालते हैं पर आत्मनिरीक्षण को बाध्य भी तो करते हैं।
अपमान के कारण शायद हम स्वयं होते हैं। इससे बचने का उपक्रम भी हमें स्वयं ही करना होगा।
अपमान अच्छा एपीटाइजर है ,अपमान मान की भूख जगा देता है।
पर अपमान के साथ ही ऐसा व्यवहार क्यों?
आप मान को तो ताजिन्दगी अपने ड्राइंग रूम में बैठा कर साथ रखते हैं।कभी भूलते नहीं। बड़ै इतमिनान से संभाले रहते हैं।
मान मनपसन्द है,मनमाफिक है,टेस्टी है। अपमान दुःख देवन है, इसीलिये दोनो के साथ दो तरह का व्यवहार करते हैं, यही न।
पर अपमान आभिमान का नाश करता है, कुछ कह जाता है, कुछ समझा जाता है, स्वयं अपने कारणों के बारे में संकेत दे जाता है।
मान सोया हुआ अभिमान जगा देता है, बहुत कुछ भुला डालता है, गफलत मैं उलझा देता है और अपमान के रास्ते ढकेल डालता है।
अपमान के क्षणों को याद करते रहने से नुकसान कम होते हैं, वे बार बार आपको सावधान करते हैं। हाँ ,कभी -कभी उत्साह को कम करते हैं, विषाद से भर डालते हैं पर आत्मनिरीक्षण को बाध्य भी तो करते हैं।
अपमान के कारण शायद हम स्वयं होते हैं। इससे बचने का उपक्रम भी हमें स्वयं ही करना होगा।
अपमान अच्छा एपीटाइजर है ,अपमान मान की भूख जगा देता है।
Thursday, 27 February 2014
Wednesday, 26 February 2014
आँखें धंस ही चुकी है तो क्या , देह ही तो सूखा है अब तक
रात हुई है कब ,आँख लगी थी ,कब लक्ष्य बचेगा कब तक।
मेरी हथेली पर आ चूका है चाँद ,सितारे भी कर रहे आराम
दीये सजे ,सजे मंडप ,बजी भेर, रौशनी नाची थी अविराम।
आखिर मेरी मुट्ठी में तो अब आ ही चूका है आसमान,शून्य
अपने सूरज के लिये कोई और जगह तलाश लो अब तुम।
धरती मेरी सांसों में समा गयी है, दुनिया कहाँ रहेगी अब
मेरी आँखों में अब भी रह सकते हो ,सारी जहां रहेगी अब।
आँखें धंस ही चुकी है तो क्या , देह ही तो सूखा है अब तक
रात हुई है कब ,आँख लगी थी ,अब लक्ष्य बचेगा कब तक।
रात हुई है कब ,आँख लगी थी ,कब लक्ष्य बचेगा कब तक।
मेरी हथेली पर आ चूका है चाँद ,सितारे भी कर रहे आराम
दीये सजे ,सजे मंडप ,बजी भेर, रौशनी नाची थी अविराम।
आखिर मेरी मुट्ठी में तो अब आ ही चूका है आसमान,शून्य
अपने सूरज के लिये कोई और जगह तलाश लो अब तुम।
धरती मेरी सांसों में समा गयी है, दुनिया कहाँ रहेगी अब
मेरी आँखों में अब भी रह सकते हो ,सारी जहां रहेगी अब।
आँखें धंस ही चुकी है तो क्या , देह ही तो सूखा है अब तक
रात हुई है कब ,आँख लगी थी ,अब लक्ष्य बचेगा कब तक।
लड़ाइयां केवल बहादुरी से या गोले बारूद के भरोसे नहीं जीती जाती , हिम्मत और कौशल , strategy and warfare, ही निर्णायक होता है ,प्रबंधन एवं साधनों का कुशल संचालन सबसे प्रमुख होता है।
प्रार्थना अवश्य कर लें। पर उसके भरोसे नहीं रह सकते।
संचालन कौशल सभी जगह महत्वपूर्ण होता है।
अपने साधनों का सर्वोत्तम मनोवैज्ञानिक संस्थागत आनुपातिक प्रयोग लक्ष्य को सामने रख करना , साथ ही उपस्थित प्रतिरोध ,चुनौती का विवेक पूर्ण मूल्यांकन कर उसी के अनुरूप समयानुसार सहायक तत्वों ,साथियों का सहयोग सावधानी से समय पर प्राप्त कर लेना, उसका नियोजन कर लेना ही सफलता के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है।
प्रार्थना अवश्य कर लें। पर उसके भरोसे नहीं रह सकते।
संचालन कौशल सभी जगह महत्वपूर्ण होता है।
अपने साधनों का सर्वोत्तम मनोवैज्ञानिक संस्थागत आनुपातिक प्रयोग लक्ष्य को सामने रख करना , साथ ही उपस्थित प्रतिरोध ,चुनौती का विवेक पूर्ण मूल्यांकन कर उसी के अनुरूप समयानुसार सहायक तत्वों ,साथियों का सहयोग सावधानी से समय पर प्राप्त कर लेना, उसका नियोजन कर लेना ही सफलता के लिए अधिक महत्वपूर्ण होता है।
http://lawlex.org/lex-bulletin/naturally-ours/6495
Normative versus reality
Back then, to the central question: who do natural resources belong to? The law provides some answers. India is a party to the United Nations Convention on Biological Diversity, whose foundational pillar is sustainable use of natural resources. Laws and licensing attempt to enforce a normative manner in which natural resources should be managed. Sand mining, for instance, can only be done after obtaining licenses from state governments. A bill on Mining of Minerals is currently pending with the government. The central idea is that the state government, under the public trust doctrine, is the keeper of environmental resources, and thus also its regulator. There have been several judicial precedents for this as well. In the case of Jagpal Singh versus State of Punjab (2011) the Supreme Court ruled that environmental commons cannot be used for private profit.
Profit is a key concept that needs to be addressed through the discourse of sustainability. Profit, as opposed to sustainable consumption, or subsistence consumption, is one of the significant ways of looking at environmental governance. Let’s look at some of the other legislations in India: the Forest Rights Act (2006) allows traditionally forest-dependent communities to harvest natural resources, and for this, they do not need permissions or licenses. The implicit idea is that the extraction has to be done in a manner which is sustainable, as opposed to being for profit. In its recent order regarding mining in Niyamgiri in Orissa, the Supreme Court has ordered that the Gram Sabhas, or village councils, of the Dongria Kondh tribals (the petitioners in the case) should decide if they want mining in their area, which is proposed by Vedanta. This is based on a reading of the Forest Rights Act, acknowledging in effect the right of forest-dependent communities to have the first right over the use of resources they are dependant on. Again, this is underpinned by the sustainability concept, as key to this approach is the idea that it is the duty of forest-dependent communities to sustainably use, and thus in effect protect and foster, natural resources.
But does sustainability underpin other operations related to resource extraction, especially activities of organised cartels? The answer is a resounding no. Mining mafias in various states have become so entrenched that Courts have had to respond with complete bans and moratoriums. The moot point in these operations has been indiscriminate mining, indiscriminate hoarding, and illegal profits.
This brings me back to the Constitution of India, a shining light for many of us. The Supreme Court has said that the Right to Life, mandated under the Constitution of India includes the right to clean air and water. The Constitution also states it is the Fundamental Duty of citizens to protect the environment. The Environment Protection Act (1986) is the primary ‘teeth’ we have for enforcing this idea: our activities have to be both sustainable, and also, be done without causing indiscriminate air and water pollution.
If you enjoy seeing the moon shine its light on you on a clear night, it is also pertinent to remember that the moon is, under public trust doctrine, a ‘Common Heritage of Mankind’. I’d like to bring that idea closer home, and emphasise that our natural resources—the sand under your feet—is also common heritage, and not just common resources. Sustainable and reasonable use of such resources, with regulations, is the order of the day, for us as well as the heritage we leave behind us.
Neha Sinha
It is sad that our judicial system is in danger of becoming defunct and is kept in the limelight only by periodic sensationalist decisions, which then become mulch for the chatterati.
The fundamental axiom of a justice system is its ability to deliver justice on time. To further ensure this, the system is vested with rights of self-policing.
However, the track record of our judicial system shows one of escalating delays and failures.
In such circumstances people are left to the mercies of de facto ruling elites.
There is little point in bemoaning the size of the task or paucity of resources.
The real failure is one of will to stick to the task of delivering justice, and this is epitomized by the mounting delays and costs.
True, there are large gaps in the statutes - but as the Visakha guidelines have shown, there is room for constructive activism. It is time the Supreme Court started wielding the stick and clear the backlog, and deliver the promise of time-bound justice.
Tuesday, 25 February 2014
Monday, 24 February 2014
उत्पादन प्रारम्भ होने की प्रक्रिया के प्रथम चरण से लेकर उसके अंतिम उपभोग के आखिरी स्वरुप तक राज्य की गिद्ध -दृष्टि उससे अधिक से अधिक राजस्व प्राप्त करने पर होती है।
वह भी मल्टी -लेयर्ड टैक्स सिस्टम ,मल्टी- टियर टैक्सिंग संस्था तथा एक साथ टैक्स लेने में परस्पर प्रतियोगिता कर रहे एकाधिक राज्य -शक्ति आच्छादित राज्य नुमा संस्थान- सभी मिल कर उत्पादन प्रक्रिया को ही हतोत्साहित करते प्रतीत होते हैं ।
वास्तविक उत्पादन के पूर्व कर लेने या संग्रह का आग्रह या प्रयास या कि विचार तक क्या राष्ट्रिय हित में हो सकता है।
उत्पादन एक प्रवृत्ति है , उत्पादकता एक स्वाभाव। इसका स्तर पर संरक्षण किया जाना चाहिये। उत्पादन होता रहेगा तो उपभोग ,कर ,राजस्व स्वतः आ जायेंगे।
वह भी मल्टी -लेयर्ड टैक्स सिस्टम ,मल्टी- टियर टैक्सिंग संस्था तथा एक साथ टैक्स लेने में परस्पर प्रतियोगिता कर रहे एकाधिक राज्य -शक्ति आच्छादित राज्य नुमा संस्थान- सभी मिल कर उत्पादन प्रक्रिया को ही हतोत्साहित करते प्रतीत होते हैं ।
वास्तविक उत्पादन के पूर्व कर लेने या संग्रह का आग्रह या प्रयास या कि विचार तक क्या राष्ट्रिय हित में हो सकता है।
उत्पादन एक प्रवृत्ति है , उत्पादकता एक स्वाभाव। इसका स्तर पर संरक्षण किया जाना चाहिये। उत्पादन होता रहेगा तो उपभोग ,कर ,राजस्व स्वतः आ जायेंगे।
तौलते तो सभी हैं।
दुकानदारों को तौलने के लिये तराजू ,बटखरे रखने पड़ते हैं. वे सभी स्टैंडर्ड होने चाहिये।भेद भाव वाले ,नान स्टैंडर्ड बटखरे ,तराजू किसी को जेल तक पहुंचा दे सकते हैं।
पर उन लोगों का क्या करेंगे ,जिनको हमको ,आपको ,हमारा- आपका- व्यवहार ,हित तौलने के काम पर नियुक्त कियागया है पर उनके पास कोई स्टैंडर्ड ही नहीं ,बस हम आप उनकी मर्जी पर आश्रित हैं।
और हाँ, सिवा दर्शक रहने अथवा भुक्त भोगी होने के आलावा इन लोगों का हम आप कर भी क्या सकते हैं।
कुछ लोग डिस्क्रिमिनेटेड अगेंस्ट होने के लिए ही पैदा होते हैं।
किंग डज नो रॉंग।
दुकानदारों को तौलने के लिये तराजू ,बटखरे रखने पड़ते हैं. वे सभी स्टैंडर्ड होने चाहिये।भेद भाव वाले ,नान स्टैंडर्ड बटखरे ,तराजू किसी को जेल तक पहुंचा दे सकते हैं।
पर उन लोगों का क्या करेंगे ,जिनको हमको ,आपको ,हमारा- आपका- व्यवहार ,हित तौलने के काम पर नियुक्त कियागया है पर उनके पास कोई स्टैंडर्ड ही नहीं ,बस हम आप उनकी मर्जी पर आश्रित हैं।
और हाँ, सिवा दर्शक रहने अथवा भुक्त भोगी होने के आलावा इन लोगों का हम आप कर भी क्या सकते हैं।
कुछ लोग डिस्क्रिमिनेटेड अगेंस्ट होने के लिए ही पैदा होते हैं।
किंग डज नो रॉंग।
Try to conceive and generate a productive thought a day.
Save it every day.
Check your savings periodically.
Rearrange, realign and filter after carefully analyzing. Reorganize them. Reconstruct them. Your prerogative!
Thoughts and instinctive impulses confuse each other .
They are not the same although they appear similar, feel alike but are definitely different.
Gradually you will be in a position to invest your thought for future.
Never leave the world until you have real savings.
Now you can satisfactorily transfer this savings to the coming generations.
Saved thoughts are the real treasure to be inherited.
After all you have to go one day. Why do not you repay before you go?
Save it every day.
Check your savings periodically.
Rearrange, realign and filter after carefully analyzing. Reorganize them. Reconstruct them. Your prerogative!
Thoughts and instinctive impulses confuse each other .
They are not the same although they appear similar, feel alike but are definitely different.
Gradually you will be in a position to invest your thought for future.
Never leave the world until you have real savings.
Now you can satisfactorily transfer this savings to the coming generations.
Saved thoughts are the real treasure to be inherited.
After all you have to go one day. Why do not you repay before you go?
I do not write or propose any solution. My only objective is to initiate a process, trigger thinking on the part of all of us.Churn your thought as mush as you can. I shall do the corresponding churning also.
But I will never impose,guide.
Choose your own way.Walk that way. Fix your destination. Change it as many time as you wish. Walk as much as you can, wish or are required. You alone are the master.
Do not agree.I do not want you to agree. Not everything written by me is always correct.
Cannot be correct!
I know!
Just differ,that is fine.
Let me differ with you.
But KNOW ME
I want to know you and all
But I will never impose,guide.
Choose your own way.Walk that way. Fix your destination. Change it as many time as you wish. Walk as much as you can, wish or are required. You alone are the master.
Do not agree.I do not want you to agree. Not everything written by me is always correct.
Cannot be correct!
I know!
Just differ,that is fine.
Let me differ with you.
But KNOW ME
I want to know you and all
I do not write or propose any solution. My only objective is to initiate a process, trigger thinking on the part of all of us.Churn your thought as mush as you can. I shall do the corresponding churning also.
But I will never impose,guide.
Choose your own way.Walk that way. Fix your destination. Change it as many time as you wish. Walk as much as you can, wish or are required. You alone are the master.
Do not agree.I do not want you to agree. Not everything written by me is always correct.
Cannot be correct!
I know!
Just differ,that is fine.
Let me differ with you.
But KNOW ME
I want to know you and all
But I will never impose,guide.
Choose your own way.Walk that way. Fix your destination. Change it as many time as you wish. Walk as much as you can, wish or are required. You alone are the master.
Do not agree.I do not want you to agree. Not everything written by me is always correct.
Cannot be correct!
I know!
Just differ,that is fine.
Let me differ with you.
But KNOW ME
I want to know you and all
लिखी बात कम पढ़ी जाती है ,सुनी बात को ही पढ़ा मान लिया जाता है।
छोटी रचना,एक दो वाक्यों की ,एक दो शब्दों की ही पढ़ी जाती है।
न बड़ा सोच , न बड़ा लेखन-न बड़ा लेखक - पाठक तो हैं ही कम -केवल नकलची ब्यापारी - बस इश्तिहारबाज फैलें हैं चरों ओर। मंच पर कमर लचका दो लाइन सुनना , सुनाना , कुछ अदा से कुछ कह दिखाना ,हो गया लिखना भी और पढ़ना भी।
लिखने में न तो निरन्तरता, न समरूपता।
छोटी रचना,एक दो वाक्यों की ,एक दो शब्दों की ही पढ़ी जाती है।
न बड़ा सोच , न बड़ा लेखन-न बड़ा लेखक - पाठक तो हैं ही कम -केवल नकलची ब्यापारी - बस इश्तिहारबाज फैलें हैं चरों ओर। मंच पर कमर लचका दो लाइन सुनना , सुनाना , कुछ अदा से कुछ कह दिखाना ,हो गया लिखना भी और पढ़ना भी।
लिखने में न तो निरन्तरता, न समरूपता।
Sunday, 23 February 2014
History has never been really fair to KARN.
First generation talent or wisdom faces real discrimination even at the hands of wise.
First generation hard labor seldom gets its due,what to talk about reward or appreciation.
Only royal-blood knows the royal path.
But then, new talents keep on challenging the royal breed.
First generation talent or wisdom faces real discrimination even at the hands of wise.
First generation hard labor seldom gets its due,what to talk about reward or appreciation.
Only royal-blood knows the royal path.
But then, new talents keep on challenging the royal breed.
Saturday, 22 February 2014
तुम्हारे कफ़न का मोहताज मैं अब नहीं रहा
इत्मीनान से ईमान की चादर ओढ़े सोया हूँ।
कोई शिकवा नहीं ,हर फ़र्ज़ निभाया है मैंने
बाकी कुछ भी नहीं ,हर कर्ज़ चुकाया है मैंने।
कोई गुनाह ऐसा नहीं ,जिसका दर्द साथ हो
कोई कुफ्र है ऐसा नहीं , जिसमें मेरा हाथ हो।
अपने पास अपने लिये ,कुछ भी नहीं छिपाया
इत्मीनान से अलविदा ,वहीं छोड़ा , जहाँ पाया।
इत्मीनान से ईमान की चादर ओढ़े सोया हूँ।
कोई शिकवा नहीं ,हर फ़र्ज़ निभाया है मैंने
बाकी कुछ भी नहीं ,हर कर्ज़ चुकाया है मैंने।
कोई गुनाह ऐसा नहीं ,जिसका दर्द साथ हो
कोई कुफ्र है ऐसा नहीं , जिसमें मेरा हाथ हो।
अपने पास अपने लिये ,कुछ भी नहीं छिपाया
इत्मीनान से अलविदा ,वहीं छोड़ा , जहाँ पाया।
Friday, 21 February 2014
बस एक बार और
बस एक बार और
लहू को खौल जाने दॊ
जाने कौन सा लक्ष्य
अब भी अर्जुन की राह देखता हो।
राहें अनंत है,रहेंगी
एक एक कर ही चलना है
बस एक बार फिर चलो
जाने कौन सी राही राह देखता हो। .
बस एक बार फिर
बंशी को बज जाने दो
जाने किस राधा का मन
कहीं कान्हा की राह देखता हो।
लहू को खौल जाने दॊ
जाने कौन सा लक्ष्य
अब भी अर्जुन की राह देखता हो।
राहें अनंत है,रहेंगी
एक एक कर ही चलना है
बस एक बार फिर चलो
जाने कौन सी राही राह देखता हो। .
बस एक बार फिर
बंशी को बज जाने दो
जाने किस राधा का मन
कहीं कान्हा की राह देखता हो।
सूखा ,उतरा सा वह क्यों?
अभी-अभी क्या बह गया है?
पानी आँख का
या आँसू आँख से
या सिर के उपर से पानी,
कहीं पानी उतर तो नहीं गया है।
कहते क्यों नहीं,
अभी -अभी वह क्या कह गया है
चुप रहने के लिये
... या छिप जाने के लिये
या कुछ छिपा देने के लिये
कही सब कुछ उजागर तो नहीं हो गया है।
वह उदास क्यों था?
वह क्या सह गया है?
उपहास या अपमान
सत्यानाश या सर्वनाश
य़ा कि बाकी कुछ ही रह गया है
कहीं कुछ खो तो नहीं गया है?
बताते क्यौ नहीं?
पूछ तो रहा हूँ, अब क्या रह गया है
मलाल,अफसोस,पछतावा
या कि केवल याद
हो सकता है, हो कोइ स्वाद
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रहने आता है
कुछ भी नही रहता है
कुछ भी नही रह जाता है
कुछ भी नही रहने आता है
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रह पाता है।
अभी-अभी क्या बह गया है?
पानी आँख का
या आँसू आँख से
या सिर के उपर से पानी,
कहीं पानी उतर तो नहीं गया है।
कहते क्यों नहीं,
अभी -अभी वह क्या कह गया है
चुप रहने के लिये
... या छिप जाने के लिये
या कुछ छिपा देने के लिये
कही सब कुछ उजागर तो नहीं हो गया है।
वह उदास क्यों था?
वह क्या सह गया है?
उपहास या अपमान
सत्यानाश या सर्वनाश
य़ा कि बाकी कुछ ही रह गया है
कहीं कुछ खो तो नहीं गया है?
बताते क्यौ नहीं?
पूछ तो रहा हूँ, अब क्या रह गया है
मलाल,अफसोस,पछतावा
या कि केवल याद
हो सकता है, हो कोइ स्वाद
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रहने आता है
कुछ भी नही रहता है
कुछ भी नही रह जाता है
कुछ भी नही रहने आता है
मैं बताता हूँ, कुछ भी नही रह पाता है।
Evils and Devils are easily available and can be marketed easily with glamour, so these are being propagated, marketed,searched, liked, sold, bought, sought in abundance.
They have more takers. These are nicely presented in a tasty way and are marketed vigorously. These carry more imminent satisfaction value.
इसलिये अच्छाई की चर्चा भी कम, ग्राहक भी कम, मात्रा भी कम, खोज भी कम---- इसिलिये नाचने-बजाने, खेलने-खिलाने, पीने-पिलाने, घूमने-घूमाने को अधिक लाइक और शेयर मिलते हैं--------- गबन , गोदान, सत्य के साथ प्रयोग, भारत की खोज बिके जमाना हो गया--
We have forgotten the art of selling even a simple hosiery item without threeXXX Ad- the three lads having three -------------- huge posters,
or that stuff without the words from Dada Saheb Falke Award Winner Star insisting that The baratis should be served that way
They have more takers. These are nicely presented in a tasty way and are marketed vigorously. These carry more imminent satisfaction value.
इसलिये अच्छाई की चर्चा भी कम, ग्राहक भी कम, मात्रा भी कम, खोज भी कम---- इसिलिये नाचने-बजाने, खेलने-खिलाने, पीने-पिलाने, घूमने-घूमाने को अधिक लाइक और शेयर मिलते हैं--------- गबन , गोदान, सत्य के साथ प्रयोग, भारत की खोज बिके जमाना हो गया--
We have forgotten the art of selling even a simple hosiery item without threeXXX Ad- the three lads having three -------------- huge posters,
or that stuff without the words from Dada Saheb Falke Award Winner Star insisting that The baratis should be served that way
Thursday, 20 February 2014
At the top of law -legal bodies, legal governance and the justice delivery mechanism we are still having that 1950/60 mindset, speed, output which is still under influence of pre-independence political, social, intellectual, economic, tax and revenue values.
The wisdom,research and labor of the new generation- law entrepreneurs ,law schools, academies has not yet been acknowledged by the top brass in this field, at least not by the top adjudicating bodies.
Whether the old school is knowingly avoiding the young brains ,their research- results and a vision for justice (2050)?
Whether the young generation law entrepreneurs are unnecessarily polite,courteous and humble towards the old school .
Whether we have already suffered a lot due to our status quoist formalities?
Have we blundered? Should we change still now?
The wisdom,research and labor of the new generation- law entrepreneurs ,law schools, academies has not yet been acknowledged by the top brass in this field, at least not by the top adjudicating bodies.
Whether the old school is knowingly avoiding the young brains ,their research- results and a vision for justice (2050)?
Whether the young generation law entrepreneurs are unnecessarily polite,courteous and humble towards the old school .
Whether we have already suffered a lot due to our status quoist formalities?
Have we blundered? Should we change still now?
Wednesday, 19 February 2014
मैं अमीबा, बैक्टीरीया, वायरस आदि नही हूँ कि मुझे माइक्रोस्कोप से देखौ, परखो।
मैं पूरा इन्सान हूँ, मुझे आँखों से देखो, दिल, दिमाग और अपने मन से परखों। मशीनो से इन्सान नहीं परखे जा सकते।
लेबोरेटरी में इन्सान को परखने के लिये या कि समझने के लिये ले जाना महत्वहीन है, इससे बचो।
मेरी भावना भी समझो। मेरे मन को अपने मन से जानो।
भावना में तीब्रता ,गहराई ,आवेग , गति ,दिशा ,गंतब्य हैं।
मैं पूरा इन्सान हूँ, मुझे आँखों से देखो, दिल, दिमाग और अपने मन से परखों। मशीनो से इन्सान नहीं परखे जा सकते।
लेबोरेटरी में इन्सान को परखने के लिये या कि समझने के लिये ले जाना महत्वहीन है, इससे बचो।
मेरी भावना भी समझो। मेरे मन को अपने मन से जानो।
भावना में तीब्रता ,गहराई ,आवेग , गति ,दिशा ,गंतब्य हैं।
Tuesday, 18 February 2014
Politics must not dent nation, system ,national value and interest.
Politicians and all those who wield power either positional or money or related to establishment must set example by submitting themselves for scrutiny by the same system through which a common man is checked, verified and held accounted for for his omissions and commissions.
This will raise the relevance ,strength and reliability of the system and those who are enjoying power.
Do not allow the system to be taken for a ride for your individual gain.
Basic system, specially the judicial system must be allowed to take its natural flow even if it is painful, some time initiated out of oblique intention against the power-competitors so that the credibility and impartiality of legal process can be shown to be above individual approach or power.
The loss of credibility in the eyes of the public would undermine the rule of law which is the basic feature of our constitution.
Let none, whom so ever he may be ,allowed to exploit the system.
Let not the society be exposed to risk of loss of credibility and loss of the system itself- loss at both ends.
Politicians and all those who wield power either positional or money or related to establishment must set example by submitting themselves for scrutiny by the same system through which a common man is checked, verified and held accounted for for his omissions and commissions.
This will raise the relevance ,strength and reliability of the system and those who are enjoying power.
Do not allow the system to be taken for a ride for your individual gain.
Basic system, specially the judicial system must be allowed to take its natural flow even if it is painful, some time initiated out of oblique intention against the power-competitors so that the credibility and impartiality of legal process can be shown to be above individual approach or power.
The loss of credibility in the eyes of the public would undermine the rule of law which is the basic feature of our constitution.
Let none, whom so ever he may be ,allowed to exploit the system.
Let not the society be exposed to risk of loss of credibility and loss of the system itself- loss at both ends.
Monday, 17 February 2014
हर सख्श को अपनी चादर खुद ही बुननी पड़ती है
यदि साफ बेदाग चादर ओढ़नी हे
ओढ़ कर जस की तस रख देनी है ,
तो
हर शख्स को खुद को ही ताना बना ही देना होगा
भरनी भी बाहर से ली तो ,चादर बनने के पहले दगदार
हर चादर वाले को बनना ही होगा, चादर का पहरेदार
जतन से पहनने का जनून-चादर पहनने का,
बेदाग पहनने-बने रहने की कालजयी प्रतिज्ञा
जस की तस रख देने की खुद को दी कसम
कुर्बानी का माद्दा, सहने का जिद्द
बँधी जीभ,खुली तब भी बँद आँखें
न बोले पर सब तोले सो जुबान,
खाते पर चखते नहीं
भोगते औ भागते पर रूकते नहीं
देखकर भी ताकते नहीं
जागते ,जगाते, न सोते, न सोने देते
हाथ जो कभी थकते नहीं, रुकते नहीं
उढना-बैठना, बोलना -चालना सब फकीरी
तब जा कर बड़े जतन से एक चादर बनती हे
तब जाके जतन से ओढ़ी जाती है
तभि बेदाग रह पाती है
औ तभी जस की तस रख दी जाती है
मन तो इस चादर तो मैला ही करना चाहता हे
कभी कोई इसे मन से बचा ले जाता हे
बेदाग जस की तस रख देने के लिये।
यदि साफ बेदाग चादर ओढ़नी हे
ओढ़ कर जस की तस रख देनी है ,
तो
हर शख्स को खुद को ही ताना बना ही देना होगा
भरनी भी बाहर से ली तो ,चादर बनने के पहले दगदार
हर चादर वाले को बनना ही होगा, चादर का पहरेदार
जतन से पहनने का जनून-चादर पहनने का,
बेदाग पहनने-बने रहने की कालजयी प्रतिज्ञा
जस की तस रख देने की खुद को दी कसम
कुर्बानी का माद्दा, सहने का जिद्द
बँधी जीभ,खुली तब भी बँद आँखें
न बोले पर सब तोले सो जुबान,
खाते पर चखते नहीं
भोगते औ भागते पर रूकते नहीं
देखकर भी ताकते नहीं
जागते ,जगाते, न सोते, न सोने देते
हाथ जो कभी थकते नहीं, रुकते नहीं
उढना-बैठना, बोलना -चालना सब फकीरी
तब जा कर बड़े जतन से एक चादर बनती हे
तब जाके जतन से ओढ़ी जाती है
तभि बेदाग रह पाती है
औ तभी जस की तस रख दी जाती है
मन तो इस चादर तो मैला ही करना चाहता हे
कभी कोई इसे मन से बचा ले जाता हे
बेदाग जस की तस रख देने के लिये।
Saturday, 15 February 2014
Could not comprehend the complexities of practical life till recently. could not feel subjective judging till recently. Had always a notion that being the best is the best way and one must not care for the rest.
But now I know there are many more things beside being the best that is going to decide the rest- that is ganging up, ready to own or to be owned and ultimately the willingness to be used as a tool and capacity to dilute.
In other way being pure and best is a real risk-you are going to be mowed down.
You will earn only enemies if you grow to be the best.
But now I know there are many more things beside being the best that is going to decide the rest- that is ganging up, ready to own or to be owned and ultimately the willingness to be used as a tool and capacity to dilute.
In other way being pure and best is a real risk-you are going to be mowed down.
You will earn only enemies if you grow to be the best.
If we can limit the journey of each litigation in terms of time and delink litigation from professional bread of a section of professionals across the whole country through mechanism of legal services authority and can institutionalize the legal aid at all levels,we will perhaps serve the nation in the biggest way. Only one step-institutionalize the whole legal aid concept.It is possible and visibly possible. Only the affluent thousands will oppose it.
Friday, 14 February 2014
Do not create an absolute vacuum.
We need to build ,rebuild and grow. We cannot live without trust in ourselves and our basic values. We are a society not used to abrupt U turns, Z journeys or X operations.
We have been growing continuously through O operations.
Ours is the unique society where we revolutionize through implementation of our constitution and not by overthrowing the whole structure at a time and create a vacuum.
Trust our own track record and tradition. We have grown slowly but steadily.
Let us believe in our institutions.
We will clean,realign them if occasion arise but will not allow their destruction for the only reason that the output is not the assumed best.
Let me not prevail over your collective wisdom . I am not and never the wisest.
Do not create an absolute vacuum.Not even if the wisest proposes so.
We need to build ,rebuild and grow. We cannot live without trust in ourselves and our basic values. We are a society not used to abrupt U turns, Z journeys or X operations.
We have been growing continuously through O operations.
Ours is the unique society where we revolutionize through implementation of our constitution and not by overthrowing the whole structure at a time and create a vacuum.
Trust our own track record and tradition. We have grown slowly but steadily.
Let us believe in our institutions.
We will clean,realign them if occasion arise but will not allow their destruction for the only reason that the output is not the assumed best.
Let me not prevail over your collective wisdom . I am not and never the wisest.
Do not create an absolute vacuum.Not even if the wisest proposes so.
रचना तो लगातार होती ही रहती है , यह एक सतत प्रक्रिया है , रचना के क्रम में कभी भी एकदम से कोई ठहराव या रुकावट पूरी तरह से आ ही नहीं सकता। प्रवाह लगातार चलता ही रहता है। निरंतर रचना ,परिवर्त्तन ,विकास ,बदलाव ही जीवन है।
मेहँदी का रचना एक बात है जीवन का रचना अलग ही चीज है। एक रचे तो हर बार एक से रंग , जीवन के रंग हर बार अलग।
मेहँदी का रचना एक बात है जीवन का रचना अलग ही चीज है। एक रचे तो हर बार एक से रंग , जीवन के रंग हर बार अलग।
Thursday, 13 February 2014
Wednesday, 12 February 2014
यदि आप केवल सज्ज्न है तो हाशिये में कहीं पड़े रहिये। सज्ज्न लोग अपने अधिकार तक के लिए निर्लज्ज भाव से न तो कुछ कर पाते हैं ,न लड़ पाते हैं। सज्ज्नता उन्हें संघर्ष पूरी ताकत से नहीं करने देती ,तब भी नहीं जब उनके साथ अन्याय हो रहा हो। संघर्ष करने के लिए थोडा सज्जनता का त्याग करना पड़ता है। थोडा किसी का साथ खोजना पड़ता है। आज सज्जन लोगो को विश्वास करने योग्य साथ नहीं मिल पाता। सभी अपनों का ही साथ देते हैं। बिना साथ लिए ,बिना साथ मिले सज्जन आदमी बेबस हो जाता है ,अन्याय को तो टुकुर टुकुर देखने के आलावा रह ही क्या जाता है। - कम सज्जन होना सभी के बस की बात नहीं।
Let us have a detailed goods, services consumed data. Once we can make only 130 crore data pages we can get things easier ,If we engage fifty lakh data personnel across our country it will be around 10000 per district. If these fifty lakh people prepare one peron full data base per day we can have 50x300 ==15000 lakh that is150 crore data pages ina year and if we invest rs 300 per data page the total cost would be 4500 crores only.And we need just some gadgets as the stationery and a tailor made software .Softwares already in use for such ground level data collection may be upgraded.
Tuesday, 11 February 2014
If you dream of gold medal you must know that all other around you having the same dream cannot be with you and before you lay your hands on gold medal you have to leave them behind, come what may.
You must further know that they all are trying to leave you behind .
Journey for every gold medal passes through elimination rounds. You get eliminated if you are weak.If the man beside you is stronger,he will push you out and you get eliminated.
This journey is not always fairly regulated. Rules are quite often manipulated.
Be ready to learn it ,understand it ,face it and ultimately bear it .
You must further know that they all are trying to leave you behind .
Journey for every gold medal passes through elimination rounds. You get eliminated if you are weak.If the man beside you is stronger,he will push you out and you get eliminated.
This journey is not always fairly regulated. Rules are quite often manipulated.
Be ready to learn it ,understand it ,face it and ultimately bear it .
Sunday, 9 February 2014
Someone is watching me constantly. I am under your watch . It is good for me.It helps me track myself. It reminds me of my priorities. I am duty bound to regulate and trim myself. I have to earn and deliver as per the expectation. My duties are mine.My responsibilities are always mine . All risk around is mine .I must direct myself truly even under pressure or influence. I must not yield nor succumb and must fight up till my last drop of blood or last breath.. I have my hand , head , heart and of course my tooth and nails.
शक तो तुम कर सकते हो।
नहीं भी कर सकोगे तब भी।
वैसे भी तुम शक तो करोगे ही
क्योंकि विश्वास कर सकते नहीं।
भरोसा क्यों नहीं होता तुम्हे
भरोसा कब उठा दिया तुमने।
हौसला बांध भरोसा करो तो सही
शक की जरूरत रहेगी ही नहीं। .
भरोसा अपने जमीर पर ,ईमान पर
भरोसा अपने तीर पर ,कमान पर।
शक कोई दवा नही ,शक की दवा नहीं
भरोसा करो , दुआ करो ,शक नहीं।
नहीं भी कर सकोगे तब भी।
वैसे भी तुम शक तो करोगे ही
क्योंकि विश्वास कर सकते नहीं।
भरोसा क्यों नहीं होता तुम्हे
भरोसा कब उठा दिया तुमने।
हौसला बांध भरोसा करो तो सही
शक की जरूरत रहेगी ही नहीं। .
भरोसा अपने जमीर पर ,ईमान पर
भरोसा अपने तीर पर ,कमान पर।
शक कोई दवा नही ,शक की दवा नहीं
भरोसा करो , दुआ करो ,शक नहीं।
Friday, 7 February 2014
कल्पना कोरी कल्पना नहीं होती
वह उतना ही सत्य है
जितना तुम औ मैं।
मैंने देखा है
कल्पना के दांत , नाख़ून।
कल्पना की जीभ कटार की तरह
दोनों और तेज धार वाली होती है।
कल्पना को मैंने
आंसुओं से भींगा देखा है।
ओठ काटते
दांत पर दांत चढ़ाये देखा है।
उसे साँस लेते देखा है
उसकी साँस उखड़ते भी देखा है।
मैं देखता रहता हूँ
मैनें अभी अभी देखा है।
देखोगे तो तुम भी
पर बरसों स-सदियों बाद। .
जो कुछ तुम आज देख रहे हो
वर्षों पहले वे सब कल्पना ही तो थी।
मैं आज देख रहा हूँ जिसे , तुम भी देख सकोगे
रक्त ,मांस मज्जा चढ़ जाने पर,शायद कल।
गांधी , जिसे मैनें देखा है
वह तुम्हारे लिए केवल कल्पना रहेगा।
वह उतना ही सत्य है
जितना तुम औ मैं।
मैंने देखा है
कल्पना के दांत , नाख़ून।
कल्पना की जीभ कटार की तरह
दोनों और तेज धार वाली होती है।
कल्पना को मैंने
आंसुओं से भींगा देखा है।
ओठ काटते
दांत पर दांत चढ़ाये देखा है।
उसे साँस लेते देखा है
उसकी साँस उखड़ते भी देखा है।
मैं देखता रहता हूँ
मैनें अभी अभी देखा है।
देखोगे तो तुम भी
पर बरसों स-सदियों बाद। .
जो कुछ तुम आज देख रहे हो
वर्षों पहले वे सब कल्पना ही तो थी।
मैं आज देख रहा हूँ जिसे , तुम भी देख सकोगे
रक्त ,मांस मज्जा चढ़ जाने पर,शायद कल।
गांधी , जिसे मैनें देखा है
वह तुम्हारे लिए केवल कल्पना रहेगा।
अँधेरी रात में दिये को अकेला देख
आँधियों का मन मचलने लगा।
भयाक्रांत दिये को देख
हवाएँ ललचने लगी।
देख कर इस नजारे को
एक जख्मी पतंगा भाग चला।
पतंगे कि आवाज पर
सारे परवानो का हुजूम लगा।
पतंगों ने बून ली एक चादर
अकेले कांपते दिये के चारों ओर।
आँधियो का कोई बस न चला
और वे पीछे खसकने लगी।
और जब सुबह हुई तो
दिया सुबक सुबक कर रोया।
दिये के चारों और शहीद पतंगे
दिये की आँख से आंसू टपकने लगे।
आँधियों का मन मचलने लगा।
भयाक्रांत दिये को देख
हवाएँ ललचने लगी।
देख कर इस नजारे को
एक जख्मी पतंगा भाग चला।
पतंगे कि आवाज पर
सारे परवानो का हुजूम लगा।
पतंगों ने बून ली एक चादर
अकेले कांपते दिये के चारों ओर।
आँधियो का कोई बस न चला
और वे पीछे खसकने लगी।
और जब सुबह हुई तो
दिया सुबक सुबक कर रोया।
दिये के चारों और शहीद पतंगे
दिये की आँख से आंसू टपकने लगे।
ठूंठ सा पेड़ ,उदास सा पाखी
रुंध गया कंठ ,किसे बांधू राखी।
हर शाख पर पत्ते आने दो ,
हर पक्षी को झूम कर गाने दो
हर प्रयास को मंजिल पाने दो
हर साँस को जीवन हो जाने दो।
सपने सपने सी यह दुनियाँ
हर हाथ को सपने बुनने दो
अपनी अपनी सी यह दुनियाँ
हे सख्श को अपना चुनने दो।
चपल चंचल कलम सी दुनियाँ
हर राही को कलाम -राह जाने दो
रहे न अब कोई बचपन सूना
हर आँख में सपना मचलने दो।
हर शब्द को एक तो माने दो
हर कंठ को बस यूँ गाने दो
प्रकम्पन ऐसा प्रबल उठे अब
सब कुछ एकाकार हो जाने दो।
रुंध गया कंठ ,किसे बांधू राखी।
हर शाख पर पत्ते आने दो ,
हर पक्षी को झूम कर गाने दो
हर प्रयास को मंजिल पाने दो
हर साँस को जीवन हो जाने दो।
सपने सपने सी यह दुनियाँ
हर हाथ को सपने बुनने दो
अपनी अपनी सी यह दुनियाँ
हे सख्श को अपना चुनने दो।
चपल चंचल कलम सी दुनियाँ
हर राही को कलाम -राह जाने दो
रहे न अब कोई बचपन सूना
हर आँख में सपना मचलने दो।
हर शब्द को एक तो माने दो
हर कंठ को बस यूँ गाने दो
प्रकम्पन ऐसा प्रबल उठे अब
सब कुछ एकाकार हो जाने दो।
मानवीय सम्बन्ध भावों में मेरी समझ में सर्वश्रेष्ठ भाव है शिक्षक भाव।
शिक्षक भाव गुरु भाव नहीं है।
गुरु और शिष्य के बीच एक दासता का सम्बन्ध होता है। यह अधीनता द्योतक संबंध उत्पन्न करता है। गुरु और शिष्य के संबंध में या तो शिष्य पर गुरु की छाप पड़ जाती है, या गुरु शिष्य को अपने समान कर लेता है। गुरु शिष्य सम्बन्ध में शिष्य गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई जिज्ञासा नहीं रख पाता।
शिक्षक अपने विद्यार्थी को किसी अधीनस्थ भाव में नहीं रखता। शिक्षक शिक्षा देता है ,ज्ञान का दान नहीं।
दान ,दया ,करुणा ,क्षमा -इन सभी भावों में कहीं न कहीं दाता का अहंकार छिपा होता है। श्रेष्ठता का अहंकार।
शिक्षक के पास यह अहंकार नहीं होता। और इसी कारण शिक्षक विद्यार्थी से स्थायी गुरु शिष्य सम्बन्ध नहीं बनाता।
शिक्षक विद्यार्थी को सीमा में बांधता नहीं है।
गुरु हो सकता है , शिष्य को अपने समान बना ले , कर ले आप समान। पर शिक्षक विद्यार्थ को अपने से श्रेष्ठ बनने के लिए ललकारता है ,अपने भर शिक्षा दे कर मुक्त कर देता है।
शिक्षक नहीं चाहता की उसका विद्यार्थी जीवन भर उसकी स्टाम्प लेकर दास्य भाव से घूमता रहे।
शिक्षक विद्यार्थी के स्वतंत्र व्यक्तित्व का अभ्यर्थी होता है।
शिक्षक अप्रिय भाव से प्रशिक्षण देता है। वह अपने विद्याथी से मान्यता की कामना नहीं करता। शिक्षक दक्षिणा की कामना नहीं करता।
शिक्षक विद्यार्थी को स्वतंत्र कर उसको और ऊंचाइयों पर देखना चाहता है। शिक्षक नहीं चाहता की विद्यार्थी उसका ही गुण -गान करे तथा उसके वाद , सिद्धांत या विचारों से बंध कर उसी का प्रचार करे ,
शिक्षक शोध को प्रोत्साहित करता है , विद्यार्थी को अपनी सीमा से बाहर ले जा कर स्वतंत्र कर देता है।
गुरु तथा शिक्षक दोनों के धर्म अलग अलग होते हैँ
शिक्षक भाव गुरु भाव नहीं है।
गुरु और शिष्य के बीच एक दासता का सम्बन्ध होता है। यह अधीनता द्योतक संबंध उत्पन्न करता है। गुरु और शिष्य के संबंध में या तो शिष्य पर गुरु की छाप पड़ जाती है, या गुरु शिष्य को अपने समान कर लेता है। गुरु शिष्य सम्बन्ध में शिष्य गुरु के अतिरिक्त अन्य कोई जिज्ञासा नहीं रख पाता।
शिक्षक अपने विद्यार्थी को किसी अधीनस्थ भाव में नहीं रखता। शिक्षक शिक्षा देता है ,ज्ञान का दान नहीं।
दान ,दया ,करुणा ,क्षमा -इन सभी भावों में कहीं न कहीं दाता का अहंकार छिपा होता है। श्रेष्ठता का अहंकार।
शिक्षक के पास यह अहंकार नहीं होता। और इसी कारण शिक्षक विद्यार्थी से स्थायी गुरु शिष्य सम्बन्ध नहीं बनाता।
शिक्षक विद्यार्थी को सीमा में बांधता नहीं है।
गुरु हो सकता है , शिष्य को अपने समान बना ले , कर ले आप समान। पर शिक्षक विद्यार्थ को अपने से श्रेष्ठ बनने के लिए ललकारता है ,अपने भर शिक्षा दे कर मुक्त कर देता है।
शिक्षक नहीं चाहता की उसका विद्यार्थी जीवन भर उसकी स्टाम्प लेकर दास्य भाव से घूमता रहे।
शिक्षक विद्यार्थी के स्वतंत्र व्यक्तित्व का अभ्यर्थी होता है।
शिक्षक अप्रिय भाव से प्रशिक्षण देता है। वह अपने विद्याथी से मान्यता की कामना नहीं करता। शिक्षक दक्षिणा की कामना नहीं करता।
शिक्षक विद्यार्थी को स्वतंत्र कर उसको और ऊंचाइयों पर देखना चाहता है। शिक्षक नहीं चाहता की विद्यार्थी उसका ही गुण -गान करे तथा उसके वाद , सिद्धांत या विचारों से बंध कर उसी का प्रचार करे ,
शिक्षक शोध को प्रोत्साहित करता है , विद्यार्थी को अपनी सीमा से बाहर ले जा कर स्वतंत्र कर देता है।
गुरु तथा शिक्षक दोनों के धर्म अलग अलग होते हैँ
मिडास उतर आया है जमीं पर हर जगह , बढ़ गई है भीड़ ,
बिल्लियों ने भी अब हर खम्भा नोचना बंद कर दिया है।
धृतराष्ट्र उतर आया है जमीं पर हर जगह , बढ़ गई है भीड़
संजयों ने अब हर महाभारत देखना ही बंद कर दिया है।
दुःशासन उतर आया है जमीं पर हर जगह,द्रौपदी बेचारी
कृष्ण ने अब स्खलित द्रौपदी चीर बढ़ाना बंद कर दिया है।
इसी भीड़ द्वारा कुचल दी जाउंगी, जान कर अब तो राधा,
नौ मन तेल होने के पहले ही नाच शुरू कर दिया करती है।
बिल्लियों ने भी अब हर खम्भा नोचना बंद कर दिया है।
धृतराष्ट्र उतर आया है जमीं पर हर जगह , बढ़ गई है भीड़
संजयों ने अब हर महाभारत देखना ही बंद कर दिया है।
दुःशासन उतर आया है जमीं पर हर जगह,द्रौपदी बेचारी
कृष्ण ने अब स्खलित द्रौपदी चीर बढ़ाना बंद कर दिया है।
इसी भीड़ द्वारा कुचल दी जाउंगी, जान कर अब तो राधा,
नौ मन तेल होने के पहले ही नाच शुरू कर दिया करती है।
Tuesday, 4 February 2014
राजनीति बुराई है। केवल बुराई है। इसकी यदि कोई आवश्यक मात्रा है तो वह मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है। मनुष्य को विशेष रूप से राजनैतिक रूप संवेदनशील होने से बचना चाहिये। जिस प्रकार सामान्य स्थितियों में शारीर के लिए आवश्यक लवण ,खनिज , आदि हमें सामान्य भोजन में मिल ही जाते हैं उसी प्रकार सामान्य राजनैतिक दृष्टि व्यक्ति को सामान्य सामाजिक व्यवहार में सहज ही प्राप्त हो ही जाती है।
जिस प्रकार भोजन में अतिरिक्त रूप से उपर से सीधे नमक,चीनी ,घी आदि लेना उचित नहीं है उसी प्रकार सीधे राजनैतिक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी उचित नहीं है।
राजनीति का आधिक्य अन्य नीतियों को दूषित करता है।
धर्म नीति ,शांत तत्व है। समाज नीति , परिवार नीति ,सभी सामूहिक नीतियाँ है।
पर राजनीति में स्वार्थ तत्व इतना वेगवान हो जाता है कि इसके वशीभूत अर्जुन द्रोणाचार्य का वध कर
डालता है. भीष्म अकर्मण्य हो जाते है। अशोक चण्डाशोक बन जाते हैं। ओरंगजेब पितृद्रोही हो जाते हैं। विभीषण भतृद्रोही बन जाते है। राजनीति में पवित्रता नहीं रह जाती।
अतः जहाँ तक हो ,जितना सम्भव हो जितने क्षेत्रों में जितना संभव हो ,उन्हें राजनीति से बचाया जाना चाहिये। राजनीति के प्रभाव या छाया तक से बचाया जाना चाहिए।
शिक्षा ,शोध ,विज्ञानं आदि के क्षेत्रों में राजनीति का प्रवेश अनुचित है।
राजनीति ,अर्थात राजा की नीति ,अर्थात वह निति जो प्रजा की नहीं है ,रजा की है।
राजनीति अर्थात जिसके पीछे राज ,रहस्य हो अर्थात जो पारदर्शी नहीं हो।
राजनीति अर्थात राज्य नीति अर्थात व्यक्ति की नहीं ,राज्य की नीति।
राजनीति गुप्त नीति है ,सर्व साधारण के लिये धारण करने योग्य नहीं है।
वैसे यह भी सही है कि राजनीति के प्रभाव को राजनीति से ही काटा जा सकता है,रोका जा सकता है।
सच तो यह है कि राजनीति समाज में अंदर तक प्रवेश कर चुकी है। सारी जगहों पर राजनीति विदयमान है।
पहले की राजनीति के दुष्परिणामों को कैसे दूर किया जाये ,यह गम्भीर चिंता तथा चिंतन का विषय है। यह आज की राजनीति का विचारणीय विषय है।
किन्तु आज की राजनीति के अपने परिणाम ,दुष्परिणाम भविष्य में होंगे।
पूर्व का स्वार्थ आज विष बेल बन कर खड़ा है। आज क्या स्वार्थ नहीं है ?
आज का स्वार्थ भविष्य में विष वृक्ष बन कर समस्या नहीं बनेगा ,ऐसा कौन कह सकता है। स्वार्थ ,स्वार्थी ,तथा उनका समूह बड़ा ही आकर्षक होता है ,उनका वर्त्तमान बड़ा सुगठित ,सुंदर होता है। स्वार्थ में बड़ी तीब्रता होती है। राजनीति स्वार्थ की संगिनी है। राजनीति अनेकानेक श्रृंगार करती है।
राजनीती को विद्यालयो में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिये। शिक्षकों को भी राजनीति से बचना चाहिये।
पर राजनीति आवश्यक भी है। यह विरोधाभाषों को साधने की कला है। यह परस्पर प्रतियोगी संस्थाओं को लेकर एक बड़ी संरचना खड़ी करने का पराक्रम है। यह निर्माण की ही एक विधा है जो दीर्घकालिक निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
जिस प्रकार भोजन में अतिरिक्त रूप से उपर से सीधे नमक,चीनी ,घी आदि लेना उचित नहीं है उसी प्रकार सीधे राजनैतिक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी उचित नहीं है।
राजनीति का आधिक्य अन्य नीतियों को दूषित करता है।
धर्म नीति ,शांत तत्व है। समाज नीति , परिवार नीति ,सभी सामूहिक नीतियाँ है।
पर राजनीति में स्वार्थ तत्व इतना वेगवान हो जाता है कि इसके वशीभूत अर्जुन द्रोणाचार्य का वध कर
डालता है. भीष्म अकर्मण्य हो जाते है। अशोक चण्डाशोक बन जाते हैं। ओरंगजेब पितृद्रोही हो जाते हैं। विभीषण भतृद्रोही बन जाते है। राजनीति में पवित्रता नहीं रह जाती।
अतः जहाँ तक हो ,जितना सम्भव हो जितने क्षेत्रों में जितना संभव हो ,उन्हें राजनीति से बचाया जाना चाहिये। राजनीति के प्रभाव या छाया तक से बचाया जाना चाहिए।
शिक्षा ,शोध ,विज्ञानं आदि के क्षेत्रों में राजनीति का प्रवेश अनुचित है।
राजनीति ,अर्थात राजा की नीति ,अर्थात वह निति जो प्रजा की नहीं है ,रजा की है।
राजनीति अर्थात जिसके पीछे राज ,रहस्य हो अर्थात जो पारदर्शी नहीं हो।
राजनीति अर्थात राज्य नीति अर्थात व्यक्ति की नहीं ,राज्य की नीति।
राजनीति गुप्त नीति है ,सर्व साधारण के लिये धारण करने योग्य नहीं है।
वैसे यह भी सही है कि राजनीति के प्रभाव को राजनीति से ही काटा जा सकता है,रोका जा सकता है।
सच तो यह है कि राजनीति समाज में अंदर तक प्रवेश कर चुकी है। सारी जगहों पर राजनीति विदयमान है।
पहले की राजनीति के दुष्परिणामों को कैसे दूर किया जाये ,यह गम्भीर चिंता तथा चिंतन का विषय है। यह आज की राजनीति का विचारणीय विषय है।
किन्तु आज की राजनीति के अपने परिणाम ,दुष्परिणाम भविष्य में होंगे।
पूर्व का स्वार्थ आज विष बेल बन कर खड़ा है। आज क्या स्वार्थ नहीं है ?
आज का स्वार्थ भविष्य में विष वृक्ष बन कर समस्या नहीं बनेगा ,ऐसा कौन कह सकता है। स्वार्थ ,स्वार्थी ,तथा उनका समूह बड़ा ही आकर्षक होता है ,उनका वर्त्तमान बड़ा सुगठित ,सुंदर होता है। स्वार्थ में बड़ी तीब्रता होती है। राजनीति स्वार्थ की संगिनी है। राजनीति अनेकानेक श्रृंगार करती है।
राजनीती को विद्यालयो में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिये। शिक्षकों को भी राजनीति से बचना चाहिये।
पर राजनीति आवश्यक भी है। यह विरोधाभाषों को साधने की कला है। यह परस्पर प्रतियोगी संस्थाओं को लेकर एक बड़ी संरचना खड़ी करने का पराक्रम है। यह निर्माण की ही एक विधा है जो दीर्घकालिक निर्माण की दिशा निर्धारित करती है।
जितनी ऊर्जा हमने इतिहास चिंतन और उसके महिमामंडन पर खर्च की है उसका एकांश भी यदि हमने वर्त्तमान के निर्माण या भविष्य के निर्माण के लिये किया होता तो स्थिति ही और होती।
मेरा विरोध इतिहास के प्रति अनावश्यक ममता से है। मेरा विरोध चिंतन की दिशा से है। मेरा विरोध भूतलक्षी दृष्टि से है ,मेरा विरोध बेहोशी से है। मेरा विरोध यथास्तिवादियों से है।
जीवन के मोह में कायर बन जाना उचित नहीं। मेरा विरोध घिसट घिसट कर जीने से है।
मेरा लक्ष्य भविष्य के लिये मृत्यु है। मैं संतोष के साथ जीना नहीं चाहता। मैं भविष्य के लिए मरना चाहता हूँ। भविष्य के लिए कैसे मरा जाये ,यह सीखना चाहता हूँ। मैं मरने की कला का विद्यार्थी हूँ। नहीं जनता हूँ कि सही ढंग से मर भी पाउँगा या नहीं।
पर मेरी समझ में आदर्श भविष्य के लिये इस जीवन का त्याग ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है।
मैं इतिहास के साथ साथ तो चल सकता हूँ पर इतिहास के आगे या पीछे नहीं। इतिहास को मई अपनी पीठ पर ढोना तो मई कत्तई बर्दास्त नहीं कर सकता।
मैं वर्त्तमान में जिऊंगा , पूरी ताकत से जिऊँगा और केवल भविष्य के लिये मरुंगा।
वैसे मेरी समझ में भूत, भविष्य और वर्त्तमान में कोई बहुत अंतर नहीं है। एक छोटे से अंतराल में इन तीनों को सहज ही समझा जा सकता है।
इतिहास केवल दो चार हजार साल पुराना ही नहीं होता ,दो चार सौ साल पुराना ,दो-चार साल पुराना भी इतिहास ही होता है।
दो-चार साल पुराना ही क्यों ,दो चार महीने पुराना भी तो हो सकता है ,दो- चार घंटा,, दो चार मिनट , दो चार पल भी तो है ही न।
इसी प्रकार भविष्य भी दो चार घंटे या दो चार महीने की ही बात नहीं हुआ करता ,दो चार हजार साल के बाद वाला भी भविष्य ही है।
वर्त्तमान के दो हिस्से है ,एक भूत हुआ जा रहा है ,दूसरा भविष्य से आ रहा है। एक भविष्य है , दूसरा भूत हो जायेगा। एक वर्त्तमान था ,एक वर्त्तमान हो जायेगा।
हम स्थिर हो कर बैठ जाये तो अज्ञात भविष्य को वर्त्तमान होते देख पाएंगे। उसे भूत होते भी देख पाएंगे। न भविष्य ज्ञात है न भूत पुनः प्रकाश्य।
भविष्य की कल्पना कीजिये।तर्क शास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर भविष्यवाणियाँ कीजिये ,यदि कोई तुक्का मिल जाये तो खुश होइए। सम्मानित हो जाइये। पर भविष्य को जानने का दवा करते करते भी आप मानियेगा कि यह अपूर्ण है। अनिश्चित है ,सत्य से अधिक दूर है। असत्य के अधिक करीब है ऐसा दावा।
इसी प्रकार जो कुछ भूत हो गया उसे देखते रहिये अपनी यादों से ,बस। वह दूबारा तो लौट कर नहीं आएगा। कितना भी आप कह लीजिये ,कि जो गुजर गया वह बहुत याद आ रहा है , वापस तो आने से रहा।
सच तो यह है कि आपने तो अपनी ताकत भर जो गुजर गया उसे केवल जाने ही नहीं दिया वरन आपने उसका जाना सुनिश्चित किया। आपने तो उसका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया। उसके होने के प्रमाण तक मिटा डाले। क्या यह सत्य नहीं है कि जो अभी कुछ समय पहले तक सत्य था ,वर्त्तमान था और अभी -अभी भूत हुआ है उसे आपने अपने ही हाथों से हजारों डिग्री सल्सियस तापक्रम के बीच राख बना देंगे। क्या फर्क पड़ता है ,यह तापक्रम चन्दन की लकडियो से पैदा हुआ हो या बिजली की भट्टी में।
आपका तो एक ही उद्देश्य था ,जोई वर्त्तमान अभी अभी भूत हुआ है उसका प्रमाण मिटा देना। उसको राख बना देना।
जो अभी अभी वर्त्तमान था उसे अपने ही हाथों जमीन के अंदर दस फीट अन्दर दफन कर देते है। यों तो जमीन के अन्दर दस फीट की यात्रा में सैंकड़ों , हजारों , करोड़ों वर्ष लग जा सकते हैं। पर आप अपने ही हाथों आसन्न भूत को पूर्ण भूत ,सम्पूर्ण भूत ,अनंत भूत बना देना चाहते हैं। अभी -अभी मनों मिटटी लाद कर आये हैं ,और आपखते हैं -बहुत याद आती है।
वैसे आपको उदास होने की आवश्यकता नहीं हैं। वर्त्तमान को भूत होने से कोई नहीं रोक सकता। भूत वर्त्तमान में नहीं लौटा करता। वर्त्तमान की नियति ही है कि वह भविष्य से आएगा और भूत हो ही जायेगा।
वर्त्तमान को भूत का अमृत पिला कर ,या कोरामिन पिला कर जीवित रखने का प्रयास कितना सार्थक होगा , पता नहीं।
वह भूतकालजो अपनी रक्षा नहीं कर सका ,हमारे भविष्य की रक्षा क्या करेगा।
वैसे अपनी अक्षमता छिपाने के लिए भूतकाल की छींटदार चद्दर अच्छी है। ओढ़ लीजिये , पर इस जर्जर चद्दर से क्या वर्त्तमान की गर्मी ,वर्षा ,जाड़े आने बंद हो जायेंगे ?
भूतकाल के गौरव की चद्दर या पन्नी ओढ़ लेने से क्या आपका वर्त्तमान सुरक्षित हो जायेगा ? भूतकाल का स्मरण कर क्या आप भविष्य के विरोध से बच सकते हैं ?
मेरा विरोध इतिहास के प्रति अनावश्यक ममता से है। मेरा विरोध चिंतन की दिशा से है। मेरा विरोध भूतलक्षी दृष्टि से है ,मेरा विरोध बेहोशी से है। मेरा विरोध यथास्तिवादियों से है।
जीवन के मोह में कायर बन जाना उचित नहीं। मेरा विरोध घिसट घिसट कर जीने से है।
मेरा लक्ष्य भविष्य के लिये मृत्यु है। मैं संतोष के साथ जीना नहीं चाहता। मैं भविष्य के लिए मरना चाहता हूँ। भविष्य के लिए कैसे मरा जाये ,यह सीखना चाहता हूँ। मैं मरने की कला का विद्यार्थी हूँ। नहीं जनता हूँ कि सही ढंग से मर भी पाउँगा या नहीं।
पर मेरी समझ में आदर्श भविष्य के लिये इस जीवन का त्याग ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है।
मैं इतिहास के साथ साथ तो चल सकता हूँ पर इतिहास के आगे या पीछे नहीं। इतिहास को मई अपनी पीठ पर ढोना तो मई कत्तई बर्दास्त नहीं कर सकता।
मैं वर्त्तमान में जिऊंगा , पूरी ताकत से जिऊँगा और केवल भविष्य के लिये मरुंगा।
वैसे मेरी समझ में भूत, भविष्य और वर्त्तमान में कोई बहुत अंतर नहीं है। एक छोटे से अंतराल में इन तीनों को सहज ही समझा जा सकता है।
इतिहास केवल दो चार हजार साल पुराना ही नहीं होता ,दो चार सौ साल पुराना ,दो-चार साल पुराना भी इतिहास ही होता है।
दो-चार साल पुराना ही क्यों ,दो चार महीने पुराना भी तो हो सकता है ,दो- चार घंटा,, दो चार मिनट , दो चार पल भी तो है ही न।
इसी प्रकार भविष्य भी दो चार घंटे या दो चार महीने की ही बात नहीं हुआ करता ,दो चार हजार साल के बाद वाला भी भविष्य ही है।
वर्त्तमान के दो हिस्से है ,एक भूत हुआ जा रहा है ,दूसरा भविष्य से आ रहा है। एक भविष्य है , दूसरा भूत हो जायेगा। एक वर्त्तमान था ,एक वर्त्तमान हो जायेगा।
हम स्थिर हो कर बैठ जाये तो अज्ञात भविष्य को वर्त्तमान होते देख पाएंगे। उसे भूत होते भी देख पाएंगे। न भविष्य ज्ञात है न भूत पुनः प्रकाश्य।
भविष्य की कल्पना कीजिये।तर्क शास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर भविष्यवाणियाँ कीजिये ,यदि कोई तुक्का मिल जाये तो खुश होइए। सम्मानित हो जाइये। पर भविष्य को जानने का दवा करते करते भी आप मानियेगा कि यह अपूर्ण है। अनिश्चित है ,सत्य से अधिक दूर है। असत्य के अधिक करीब है ऐसा दावा।
इसी प्रकार जो कुछ भूत हो गया उसे देखते रहिये अपनी यादों से ,बस। वह दूबारा तो लौट कर नहीं आएगा। कितना भी आप कह लीजिये ,कि जो गुजर गया वह बहुत याद आ रहा है , वापस तो आने से रहा।
सच तो यह है कि आपने तो अपनी ताकत भर जो गुजर गया उसे केवल जाने ही नहीं दिया वरन आपने उसका जाना सुनिश्चित किया। आपने तो उसका अस्तित्व ही नष्ट कर दिया। उसके होने के प्रमाण तक मिटा डाले। क्या यह सत्य नहीं है कि जो अभी कुछ समय पहले तक सत्य था ,वर्त्तमान था और अभी -अभी भूत हुआ है उसे आपने अपने ही हाथों से हजारों डिग्री सल्सियस तापक्रम के बीच राख बना देंगे। क्या फर्क पड़ता है ,यह तापक्रम चन्दन की लकडियो से पैदा हुआ हो या बिजली की भट्टी में।
आपका तो एक ही उद्देश्य था ,जोई वर्त्तमान अभी अभी भूत हुआ है उसका प्रमाण मिटा देना। उसको राख बना देना।
जो अभी अभी वर्त्तमान था उसे अपने ही हाथों जमीन के अंदर दस फीट अन्दर दफन कर देते है। यों तो जमीन के अन्दर दस फीट की यात्रा में सैंकड़ों , हजारों , करोड़ों वर्ष लग जा सकते हैं। पर आप अपने ही हाथों आसन्न भूत को पूर्ण भूत ,सम्पूर्ण भूत ,अनंत भूत बना देना चाहते हैं। अभी -अभी मनों मिटटी लाद कर आये हैं ,और आपखते हैं -बहुत याद आती है।
वैसे आपको उदास होने की आवश्यकता नहीं हैं। वर्त्तमान को भूत होने से कोई नहीं रोक सकता। भूत वर्त्तमान में नहीं लौटा करता। वर्त्तमान की नियति ही है कि वह भविष्य से आएगा और भूत हो ही जायेगा।
वर्त्तमान को भूत का अमृत पिला कर ,या कोरामिन पिला कर जीवित रखने का प्रयास कितना सार्थक होगा , पता नहीं।
वह भूतकालजो अपनी रक्षा नहीं कर सका ,हमारे भविष्य की रक्षा क्या करेगा।
वैसे अपनी अक्षमता छिपाने के लिए भूतकाल की छींटदार चद्दर अच्छी है। ओढ़ लीजिये , पर इस जर्जर चद्दर से क्या वर्त्तमान की गर्मी ,वर्षा ,जाड़े आने बंद हो जायेंगे ?
भूतकाल के गौरव की चद्दर या पन्नी ओढ़ लेने से क्या आपका वर्त्तमान सुरक्षित हो जायेगा ? भूतकाल का स्मरण कर क्या आप भविष्य के विरोध से बच सकते हैं ?
Monday, 3 February 2014
नये की ओर देखो तो सही
सुनो बातें कुछ अनकही
नया है, पहले दिखा नहीं
नया है, पहले देखा नहीं
नया है, पहले कहा नहीं
नया है, पहले सुना नहीं
तभी तो नया ,नया है
नये की ओर देखो तो सही।
हर पानी नया हर लहर नई
हर पल नया हर सुबह नई
हर नाद नया ,हर तान नई
हर पत्ता नया ,ये बहार नई
गया पुराना ,ये दुनिया नई
जो सुना न था ,सुनो तो सही
जो कहा न था ,कहो तो सही
अब तो कहो ,नया है ही सही।
पुराने को छोड़ो जरा ,आगे बढ़ो
पुराने को यहीं छोड़ ,ऊपर चढ़ो
स्वागत नये का तुम अब करो
नये के सर न अपना दोष मढ़ो
नई इबारत लिखी जो नये ने
,उसी को अब एहतराम से पढ़ो.
सुनो बातें कुछ अनकही
नया है, पहले दिखा नहीं
नया है, पहले देखा नहीं
नया है, पहले कहा नहीं
नया है, पहले सुना नहीं
तभी तो नया ,नया है
नये की ओर देखो तो सही।
हर पानी नया हर लहर नई
हर पल नया हर सुबह नई
हर नाद नया ,हर तान नई
हर पत्ता नया ,ये बहार नई
गया पुराना ,ये दुनिया नई
जो सुना न था ,सुनो तो सही
जो कहा न था ,कहो तो सही
अब तो कहो ,नया है ही सही।
पुराने को छोड़ो जरा ,आगे बढ़ो
पुराने को यहीं छोड़ ,ऊपर चढ़ो
स्वागत नये का तुम अब करो
नये के सर न अपना दोष मढ़ो
नई इबारत लिखी जो नये ने
,उसी को अब एहतराम से पढ़ो.
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