Saturday, 31 August 2013

आरोप ही सबसे सहज होते हैं- लगा डाला और तमाशा देखने लगे- मन भर गया तो आरोप वापस ले लिया- जिस पर आरोप लगा वह भी साँस लेकर कहे , मुक्ति मिल गई यही बहुत- जिसने आरोप लगाया वह  भी एहसान  दिखावे-जतावे। जब तक मन किया आरोपों की आग में जलाया भी- मजे भी लिये - अब पटाक्षेप। वाह रे आरोप- जब मरजी लगा दो, जब मन उठा लो। कोई पूछने वाला तो है नहीं। इसिलिये आरोपों को नासमझ ही गहराई से चित्त पर लेते हैं। समझदार तो आरोपों के बवन्डर में या तो मौन हो जाते है, या मुस्कुराते भर हैं, जानते है-- आरोप पानी के बुदबुदे के समान है, अधिकांश आरोप गंभीरता से लगाये ही नहीं जाते- केवल सामने वाले की प्रतिक्रिया जानने के लिये लगाये जाते हैं, सहन शक्ति देखने के लिये लगाये जते है या उस आरोप कै प्रभाव से किसी के आगे पीछे भ्रम फेलाने के लिये।
कोई एक आध आरोप ही प्रमाणित करने, या होने की स्थिति तक जा पाता है- आरोप को वास्तविकता से सदा जोड़ ही दिया जा सके जरूरी नहीं।

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