Wednesday, 21 August 2013

अपनों को ठगना या धोखा देना अच्छा नहीं लगता। ऐसा करना शायद अधिक कठिन है,इसलिये यह अच्छा कम लगता है।
 अपनों से जाल फरेब शायद अधिक अनैतिक है और शायद समाज इसे अधिक वितृष्णा की दृष्टि से देखता है। समाज अपनों के साथ किये छल को अधिक बुरा मानता है।समाज की इस तीखी प्रतिक्रिया से बचने के लिये हम अपनों से बेइमानी करने से कुछ अधिक बचने की कोशिश करते हैं।
ऴैसे देखें तो अपनो को ठगना अधिक सहज है। बुढ़ापा अपनों के पास भी होता ही है। अपने भी  अशक्त, अपाहिज, बिमार, मंदबुद्धि, आश्रित, बालक , अनपढ़ आदि होते ही हैं। इन सभी को अपनेपन का आसरा, आस्वस्ति, वास्ता देकर, दिखा कर, मुलम्मा चढ़ा कर धोखादेना अत्यन्त सहज।
 फिर अपनों के साथ किये छल के आम होने की संभावना कुछ कम तो होती ही है।
कुछ तो छल को समझ ही नहीं पाते- अपनेपन की विश्वसनियता उन्हें छल की संभावना तक की सोच तक जाने ही नहीं देती । कुछ  छल को लेकर संशय में रह जाते हैं- उन्हें सहज विशवास ही नहीं होता की अपना ही छली हो सकता है। कुछ को अपनों का छल समझ में आते आते इतना विलम्ब हो चुका होता है कि अब समझने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
बहुत से अपनों के छल, फरेब, पाप  को देखकर भी अनजान हो जाते हैं, नजरअन्दाज कर डालते हैं- शायद प्रेम वश या प्रमाद वश - कभी कभी लोक लाज वश। कुछ तो अपनोंकी इस हरकत तो देख किंकर्तव्यमूढ़ हो जाते है- उन्हें समझ में ही नहीं आता कि क्या करें। अपनों का पाप देख वे स्वय़ं को ही पापी समझ बैठते है। पिड़ित होने के बाद भी स्वयं को ही दोषी माने लगते हैं। अपनों की गलत हरकतों को अनावश्यक रूप से बरदास्त करने को अपना होने का प्रमाण जो समझा जाता है।
समाज की सामुहिक निन्दा कुलघाती के प्रति थोड़ी अधिक होती आई है। अपनों को समाज की निगाह में निन्दित होने से बचाने के लिये भि लोग अपनों के छल को आम नहीं करते।
फिर अपनों से  उसी अपनेपन की आड़ में उसी छल -कपट से माफी भी मिल जाया करती है।
अपनों की उदारता का दोहन अधिक सहज है। अपनों को डराना,उकसाना ,रुलाना, मना लेना बड़ा सहज है। अपनों की भावना समझी हुई होती है, उसके विभिन्न आयाम जाने पहचाने होते हैं,अपनों की कमजोरिया भी जानी-पहचानी होती है। आपनों की भावनाओं से खेलना सहज है, उससे अनुचित लाभ उठाना सहज-संभव है। अन्यथा अपनों कि कमजोरिया तो है ही आपनों की कमजोर कड़ी-दबाने के लिये। परस्पर छली मिल कर गुट बना लेते हैं।
बाँट-चुट कर भी छल पर परदा डाला जाता है।
समाज भी छल से प्राप्त लाभ में हिस्सा लेकर शान्त हो जाया करता है।

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