शक्ति ही कर्मबन्ध का कारण है। मनुष्य जीवन भर शक्ति का चिन्तन करता रहता है। चंचल बना फिरता है।
मूल रूप से मनुष्य में अनेकानेक भाव देखे जाते हैं
शांत भाव में मनुष्य स्थिर नहीं रह पाता। शांति किसी विक्षेप के कारण ही शायद स्थूल शरीर धारण कर पाती है। तत्पश्चात् चंचल भाव एक-एक कर आते -जाते रहते हैं।
उदार लोंगों की संगति के बाद धीरे-धीरे स्वतः समझ में आने लगता है कि सन्हीं भावों को संयमित करना, निर्देशित करना या नियमित करना ही जीवन का लक्ष्य हैं। ये सारे भाव, यहाँ तक की शांत भाव भी एक विशिष्ट दिशा में काम करते रहते हैं। इन्हींभावों को सम्यक रूप से दिशा निर्देशित करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।पर यह सहज काम नहीं है।अपने ही भावों को देखना, अपने भावों की गति को देखना, दिशा समझना , गंतब्य तक को देखना अत्यन्त कठिन कार्य है।
यह क्रिया एक विशिष्ट प्रक्रिया है, विज्ञान है, कला है- इसे समझ कर सीखना होता है ,और फिर इसके लिये निरंतर प्रयास करना होता है। ध्यानस्थ होकरअपने मनोभावों को देखना एक अनुभव है। चूंकि हमारे अधिकांश विचार, भाव चंचल वृत्ति से उत्पन्न हैं इस लिये विचार भी चंचल, अस्थिर होते हैं, अशान्त होते हैं।
प्रत्येक विचार का एक श्रोत होता है। जैसा श्रोत होगा भाव तद्स्वरुप होंगें।
शान्त भाव का श्रोत सदैव शान्त ही होगा। अशान्ति या अशान्त भाव का श्रोत चंचल, स्वयं अशान्त ही होगा। शान्ति से अशान्ति हो नहीं सकती, और अशान्ति शान्ति का श्रोत कभी नहीं हो सकती।
यदि हमें अपने मनोभावों में , विचारौं में कभी कोई अशान्ति का पुट दिखे तो तुरंत सावधान होकर उसके श्रोत तक जाना चाहिये, नही भी जा सके तो उधर देखने की या उस श्रोत को पहचानने की कोशिश तो अवश्य करनी चाहिये। यह अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है।
किसी भी विचार को जानना, पहचानना और उसे दूसरे विचारों से भिन्न समझ पाना स्वयं में सरल काम नहीं है। जब अलग अलग विचारों को ही नहीं समझ पा रहे हैं तो उनके उद्गम, श्रोत को लाना, पहचानना तो और भी मुश्किल है।
भावों की, विचारों की, उनके कारणों की, उनके मूल की, श्रोत की पहचान हो तो कैसे। यह जान-पहचान हमरे जीवन की दिशा तथा दशा ,दोनों को निर्धारित करता है।
यह सलीका है, इल्म है, हूनर है जिसे हासिल करना पड़ता है। य़ह तभी हो सकता है जब कोई आपको यह बता दे, समझा दे , या दिखा दे, कर दे, या करा दे, या कि कह दिखावे या कर दिखावे। इस जान-पहचान की एक प्रक्रिया है,क्रिया है जो आप तक तभि पहुँचेगी जब आप वहाँ तक पहूचेम या वह ज्ञान ही आप तक पहुँच जाये।
ये विचार,भाव अनन्त हैं, तब इन सब के लक्षण भी अलग -अलग होंगें। इन्हें कैसे जाना जाये। जान लेने के बाद भी पहचान ही लिजियेगा जरूरी नहीं।यह सरल नहीं है, संभव भी नहीं हैं क्यों कि चारों ओर भ्रम फैला है। आदि ब्रह्मचारी हनुमान भि हंजीवनी बूटी के समस्त गुणों, स्वरूपों से परिचित होने के बाद भी दिगभ्रमित हो ही गये थे।
ऐसी स्थिति मैं स्वाध्याय बड़ा काम आता है, अभ्यास ही सहायता करता है।
पर अभ्यास के लिये भी तो बीज रूप में ज्ञान की जरूरत होगी। स्व अध्ययन किसका और कैसे। अभ्यास किसका, कब और कैसे।
फिर एक बार वही समस्या। बीज-ज्ञान का श्रोत कहाँ। बीज ज्ञान तक पहुँचा कैसे जाये।
यह स्थूल जगत चारों ओर मायावी श्रोत से भरा है, भ्रम भरा पड़ा है। कुछ श्रोत देखने में शान्त दिखते हैं पर अन्दर मै भयंकर अशान्ति व्याप्त है, अधिकांश उन्हीं अशान्त भावों में फँस जाते हैं। स्वयं को अशान्त भावों से, विचारों से बचाना अथक परूषार्थ भरा कार्य है, साधारण पुरुषार्थ से यह संभव नहीं है। य़ह असाधारण पुरुषार्थ मात्र प्रार्थना साध्य है।
मेरा तो मानना है कि प्रार्थना ऐसे करो मानो पुरुषार्थ काम नहीं आवेगा और पुरूषार्थ ऐसे करो मानो प्रार्थना काम नही आवेगी। पुरुषार्थ और प्रार्थना दोनों एक ही दिशा मैं चलने वाली सामानांतर अविखण्डनीय चेतनायें हैं और इन्हीं दोनों के संयोग से व साधन ,वह मार्ग मिलता है जिसके माध्यम से बीज -ज्ञान-श्रोत तक पहुँचा जा सकता है।
मूल रूप से मनुष्य में अनेकानेक भाव देखे जाते हैं
शांत भाव में मनुष्य स्थिर नहीं रह पाता। शांति किसी विक्षेप के कारण ही शायद स्थूल शरीर धारण कर पाती है। तत्पश्चात् चंचल भाव एक-एक कर आते -जाते रहते हैं।
उदार लोंगों की संगति के बाद धीरे-धीरे स्वतः समझ में आने लगता है कि सन्हीं भावों को संयमित करना, निर्देशित करना या नियमित करना ही जीवन का लक्ष्य हैं। ये सारे भाव, यहाँ तक की शांत भाव भी एक विशिष्ट दिशा में काम करते रहते हैं। इन्हींभावों को सम्यक रूप से दिशा निर्देशित करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।पर यह सहज काम नहीं है।अपने ही भावों को देखना, अपने भावों की गति को देखना, दिशा समझना , गंतब्य तक को देखना अत्यन्त कठिन कार्य है।
यह क्रिया एक विशिष्ट प्रक्रिया है, विज्ञान है, कला है- इसे समझ कर सीखना होता है ,और फिर इसके लिये निरंतर प्रयास करना होता है। ध्यानस्थ होकरअपने मनोभावों को देखना एक अनुभव है। चूंकि हमारे अधिकांश विचार, भाव चंचल वृत्ति से उत्पन्न हैं इस लिये विचार भी चंचल, अस्थिर होते हैं, अशान्त होते हैं।
प्रत्येक विचार का एक श्रोत होता है। जैसा श्रोत होगा भाव तद्स्वरुप होंगें।
शान्त भाव का श्रोत सदैव शान्त ही होगा। अशान्ति या अशान्त भाव का श्रोत चंचल, स्वयं अशान्त ही होगा। शान्ति से अशान्ति हो नहीं सकती, और अशान्ति शान्ति का श्रोत कभी नहीं हो सकती।
यदि हमें अपने मनोभावों में , विचारौं में कभी कोई अशान्ति का पुट दिखे तो तुरंत सावधान होकर उसके श्रोत तक जाना चाहिये, नही भी जा सके तो उधर देखने की या उस श्रोत को पहचानने की कोशिश तो अवश्य करनी चाहिये। यह अत्यन्त कठिन प्रक्रिया है।
किसी भी विचार को जानना, पहचानना और उसे दूसरे विचारों से भिन्न समझ पाना स्वयं में सरल काम नहीं है। जब अलग अलग विचारों को ही नहीं समझ पा रहे हैं तो उनके उद्गम, श्रोत को लाना, पहचानना तो और भी मुश्किल है।
भावों की, विचारों की, उनके कारणों की, उनके मूल की, श्रोत की पहचान हो तो कैसे। यह जान-पहचान हमरे जीवन की दिशा तथा दशा ,दोनों को निर्धारित करता है।
यह सलीका है, इल्म है, हूनर है जिसे हासिल करना पड़ता है। य़ह तभी हो सकता है जब कोई आपको यह बता दे, समझा दे , या दिखा दे, कर दे, या करा दे, या कि कह दिखावे या कर दिखावे। इस जान-पहचान की एक प्रक्रिया है,क्रिया है जो आप तक तभि पहुँचेगी जब आप वहाँ तक पहूचेम या वह ज्ञान ही आप तक पहुँच जाये।
ये विचार,भाव अनन्त हैं, तब इन सब के लक्षण भी अलग -अलग होंगें। इन्हें कैसे जाना जाये। जान लेने के बाद भी पहचान ही लिजियेगा जरूरी नहीं।यह सरल नहीं है, संभव भी नहीं हैं क्यों कि चारों ओर भ्रम फैला है। आदि ब्रह्मचारी हनुमान भि हंजीवनी बूटी के समस्त गुणों, स्वरूपों से परिचित होने के बाद भी दिगभ्रमित हो ही गये थे।
ऐसी स्थिति मैं स्वाध्याय बड़ा काम आता है, अभ्यास ही सहायता करता है।
पर अभ्यास के लिये भी तो बीज रूप में ज्ञान की जरूरत होगी। स्व अध्ययन किसका और कैसे। अभ्यास किसका, कब और कैसे।
फिर एक बार वही समस्या। बीज-ज्ञान का श्रोत कहाँ। बीज ज्ञान तक पहुँचा कैसे जाये।
यह स्थूल जगत चारों ओर मायावी श्रोत से भरा है, भ्रम भरा पड़ा है। कुछ श्रोत देखने में शान्त दिखते हैं पर अन्दर मै भयंकर अशान्ति व्याप्त है, अधिकांश उन्हीं अशान्त भावों में फँस जाते हैं। स्वयं को अशान्त भावों से, विचारों से बचाना अथक परूषार्थ भरा कार्य है, साधारण पुरुषार्थ से यह संभव नहीं है। य़ह असाधारण पुरुषार्थ मात्र प्रार्थना साध्य है।
मेरा तो मानना है कि प्रार्थना ऐसे करो मानो पुरुषार्थ काम नहीं आवेगा और पुरूषार्थ ऐसे करो मानो प्रार्थना काम नही आवेगी। पुरुषार्थ और प्रार्थना दोनों एक ही दिशा मैं चलने वाली सामानांतर अविखण्डनीय चेतनायें हैं और इन्हीं दोनों के संयोग से व साधन ,वह मार्ग मिलता है जिसके माध्यम से बीज -ज्ञान-श्रोत तक पहुँचा जा सकता है।
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