Monday, 15 April 2013

बँधी साँस तो रूक जायेगी एक दिन

हर पत्थर में एक मूरत पड़ी है,
मूरत की सूरत सिर चढ़ी, तो
सधे हाथ, बँधी साँस,लगा रहा
इतमिनान से यह मूरत गढ़ी है

अब तो यह मूरत भी दिखती
चपल चंचल चितवन ताकती
झाँकती, मुस्कुराती, बतियाती
अपने पैरों पर चलने लगी है।

... अनगढ़ पत्थर तो अब इतिहास है
उसके साथ दो यात्री का एहसास है
संगतराश ने छैनी कैसे चलायी होगी
इस मूरत ने कैसे पीड़ा दबायी होगी।

छैनियों में धार आखिर तो आ ही गई
नाचती शकल तो सामने आ ही गई
बँधी साँस तो रूक जायेगी एक दिन
पर असलियत तो सामने आ ही गई।

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